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|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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'''सप्तम सर्ग'''
<font size=4>सप्तम सर्ग</font><br><br>अभिमानी मान–अवज्ञा से¸ थर–थर होने संसार लगा। पर्वत की उन्नत चोटी पर¸ राणा का भी दरबार लगा॥1॥
अभिमानी मान–अवज्ञा से¸ <Br/>थर–थर होने संसार लगा। <Br/>पर्वत की उन्नत चोटी पर¸ <Br/>राणा का भी दरबार लगा।।1।। <Br/><Br/>अम्बर पर एक वितान तना¸ <Br/>बलिहार अछूती आनों पर। <Br/>मखमली बिछौने बिछे अमल¸ <Br/>चिकनी–चिकनी चट्टानों पर।।2।। <Br/><Br/>पर॥2॥  शुचि सजी शिला पर राणा भी <Br/>बैठा अहि सा फुंकार लिये। <Br/>फर–फर झण्डा था फहर रहा <Br/>भावी रण का हुंकार लिये।।3।। <Br/><Br/>लिये॥3॥  भाला–बरछी–तलवार लिये <Br/>आये खरधार कटार लिये। <Br/>धीरे–धीरे झुक–झुक बैठे <Br/>सरदार सभी हथियार लिये।।4।। <Br/><Br/>लिये॥4॥  तरकस में कस–कस तीर भरे <Br/>कन्धों पर कठिन कमान लिये। <Br/>सरदार भील भी बैठ गये <Br/>झुक–झुक रण के अरमान लिये।।5।। <Br/><Br/>लिये॥5॥  जब एक–एक जन को समझा <Br/>जननी–पद पर मिटने वाला। <Br/>गम्भीर भाव से बोल उठा <Br/>वह वीर उठा अपना भाला।।6।। <Br/><Br/>भाला॥6॥  तरू–तरू के मृदु संगीत रूके <Br/>मारूत ने गति को मंद किया। <Br/>सो गये सभी सोने वाले <Br/>खग–गण ने कलरव बन्द किया।।7।। <Br/><Br/>किया॥7॥  राणा की आज मदद करने <Br/>चढ़ चला इन्दु नभ–जीने पर¸ <Br/>झिलमिल तारक–सेना भी आ <Br/>डट गई गगन के सीने पर।।8।। <Br/><Br/>पर॥8॥  गिरि पर थी बिछी रजत चादर¸ <Br/>गह्वर के भीतर तम–विलास। <Br/>कुछ–कुछ करता था तिमिर दूर¸ <Br/>जुग–जुग जुगनू का लघु प्रकाश।।9।। <Br/><Br/>प्रकाश॥9॥  गिरि अरावली के तरू के थे <Br/>पत्ते–पत्ते निष्कम्प अचल। <Br/>वन–वेलि–लता–लतिकाएं भी <Br/>सहसा कुछ सुनने को निश्चल।।10।। <Br/><Br/>निश्चल॥10॥  था मौन गगन¸ नीरव रजनी¸ <Br/>नीरव सरिता¸ नीरव तरंग। <Br/>केवल राणा का सदुपदेश¸ <Br/>करता निशीथिनी–नींद भंग।।11।। <Br/><Br/>भंग॥11॥  वह बोल रहा था गरज–गरज¸ <Br/>रह–रह कर में असि चमक रही। <Br/>रव–वलित बरसते बादल में¸ <Br/>मानों बिजली थी दमक रही।।12।। <Br/><Br/>रही॥12॥  "सरदारो¸ मान–अवज्ञा से <Br/>मां का गौरव बढ़ गया आज। <Br/>दबते न किसी से राजपूत <Br/>अब समझेगा बैरी–समाज।्बैरी–समाज।"।।13।। <Br/><Br/>॥13॥  वह मान महा अभिमानी है <Br/>बदला लेगा ले बल अपार। <Br/>कटि कस लो अब मेरे वीरो¸ <Br/>मेरी भी उठती है कटार।।14।। <Br/><Br/>कटार॥14॥  भूलो इन महलों के विलास <Br/>गिरि–गुहा बना लो निज–निवास। <Br/>अवसर न हाथ से जाने दो <Br/>रण–चण्डी करती अट्टहास।।15।। <Br/><Br/>अट्टहास॥15॥  लोहा लेने को तुला मान <Br/>तैयार रहो अब साभिमान। <Br/>वीरो¸ बतला दो उसे अभी <Br/>क्षत्रियपन की है बची आन।।16।। <Br/><Br/>आन॥16॥  साहस दिखलाकर दीक्षा दो <Br/>अरि को लड़ने की शिक्षा दो। <Br/>जननी को जीवन–भिक्षा दो <Br/>ले लो असि वीर–परिक्षा दो।।17।। <Br/><Br/>दो॥17॥  रख लो अपनी मुख–लाली को <Br/>मेवाड़–देश–हरियाली को। <Br/>दे दो नर–मुण्ड कपाली को <Br/>शिर काट–काटकर काली को।।18।। <Br/><Br/>को॥18॥  विश्वास मुझे निज वाणी का <Br/>है राजपूत–कुल–प्राणी का। <Br/>वह हट सकता है वीर नहीं <Br/>यदि दूध पिया क्षत्राणी का।।19।। <Br/><Br/>का॥19॥  नश्वर तनको डट जाने दो <Br/>अवयव–अवयव छट जाने दो। <Br/>परवाह नहीं¸ कटते हों तो <Br/>अपने को भी कट जाने दो।।20।। <Br/><Br/>दो॥20॥  अब उड़ जाओ तुम पांखों पाँखों में <Br/>तुम एक रहो अब लाखों में। <Br/>वीरो¸ हलचल सी मचा–मचा <Br/>तलवार घुसा दो आंखों में।।21।। <Br/><Br/>आँखों में॥21॥  यदि सके शत्रु को मार नहीं <Br/>तुम क्षत्रिय वीर–कुमार नहीं। <Br/>मेवाड़–सिंह मरदानों का <Br/>कुछ कर सकती तलवार नहीं।।22।। <Br/><Br/>नहीं॥22॥  मेवाड़–देश¸ मेवाड़–देश¸ <Br/>समझो यह है मेवाड़–देश। <Br/>जब तक दुख में मेवाड़–देश। <Br/>वीरो¸ तब तक के लिए क्लेश।।23।। <Br/><Br/>क्लेश॥23॥  सन्देश यही¸ उपदेश यही <Br/>कहता है अपना देश यही। <Br/>वीरो दिखला दो आत्म–त्याग <Br/>राणा का है आदेश यही।।24।। <Br/><Br/>यही॥24॥  अब से मुझको भी हास शपथ¸ <Br/>रमणी का वह मधुमास शपथ। <Br/>रति–केलि शपथ¸ भुजपाश शपथ¸ <Br/>महलों के भोग–विलास शपथ।।25।। <Br/><Br/>शपथ॥25॥  सोने चांदी के पात्र शपथ¸ <Br/>हीरा–मणियों के हार शपथ। <Br/>माणिक–मोति से कलित–ललित <Br/>अब से तन के श्रृंगार शपथ।।26।। <Br/><Br/>शपथ॥26॥  गायक के मधुमय गान शपथ <Br/>कवि की कविता की तान शपथ। <Br/>रस–रंग शपथ¸ मधुपान शपथ <Br/>अब से मुख पर मुसकान शपथ।।27।। <Br/><Br/>शपथ॥27॥  मोती–झालर से सजी हुई <Br/>वह सुकुमारी सी सेज शपथ। <Br/>यह निरपराध जग थहर रहा <Br/>जिससे वह राजस–तेज शपथ।।28।। <Br/><Br/>शपथ॥28॥  पद पर जग–वैभव लोट रहा <Br/>वह राज–भोग सुख–साज शपथ। <Br/>जगमग जगमग मणि–रत्न–जटित <Br/>अब से मुझको यह ताज शपथ।।29। <Br/>शपथ॥29। जब तक स्वतन्त्र यह देश नहीं <Br/>है कट सकता नख केश नहीं। <Br/>मरने कटने का क्लेश नहीं <Br/>कम हो सकता आवेश नहीं।।30।। <Br/><Br/>नहीं॥30॥  परवाह नहीं¸ परवाह नहीं <Br/>मैं हूं फकीर अब शाह नहीं। <Br/>मुझको दुनिया की चाह नहीं <Br/>सह सकता जन की आह नहीं।।31।। <Br/><Br/>नहीं॥31॥  अरि सागर¸ तो कुम्भज समझो <Br/>बैरी तरू¸ तो दिग्गज समझो। <Br/>आंखों आँखों में जो पट जाती वह <Br/>मुझको तूफानी रज समझो।।32।। <Br/><Br/>समझो॥32॥  यह तो जननी की ममता है <Br/>जननी भी सिर पर हाथ न दे। <Br/>मुझको इसकी परवाह नहीं <Br/>चाहे कोई भी साथ न दे।।33।। <Br/><Br/>दे॥33॥  विष–बीज न मैं बोने दूंगा <Br/>अरि को न कभी सोने दूंगा। <Br/>पर दूध कलंकित माता का <Br/>मैं कभी नहीं होने दूंगा।्"।।34।। <Br/><Br/>॥34॥  प्रण थिरक उठा पक्षी–स्वर में <Br/>सूरज–मयंक–तारक–कर में। <Br/>प्रतिध्वनि ने उसको दुहराया <Br/>निज काय छिपाकर अम्बर में।।35।। <Br/><Br/>में॥35॥  पहले राणा के अन्तर में <Br/>गिरि अरावली के गह्वर में। <Br/>फिर गूंज उठा वसुधा भर में <Br/>वैरी समाज के घर–घर में।।36।। <Br/><Br/>में॥36॥  बिजली–सी गिरी जवानों में <Br/>हलचल–सी मची प्रधानों में। <Br/>वह भीष्म प्रतिज्ञा घहर पड़ी <Br/>तत्क्षण अकबर के कानों में।।37।। <Br/><Br/>में॥37॥  प्रण सुनते ही रण–मतवाले <Br/>सब उछल पड़े ले–ले भाले। <Br/>उन्नत मस्तक कर बोल उठे <Br/>"अरि पड़े न हम सबके पाले।।38।। <Br/><Br/>पाले॥38॥  हम राजपूत¸ हम राजपूत¸ <Br/>मेवाड़–सिंह¸ हम राजपूत। <Br/>तेरी पावन आज्ञा सिर पर¸ <Br/>क्या कर सकते यमराज–दूत।।39।। <Br/><Br/>यमराज–दूत॥39॥  लेना न चाहता अब विराम <Br/>देता रण हमको स्वर्ग–धाम। <Br/>छिड़ जाने दे अब महायुद्ध <Br/>करते तुझको शत–शत प्रणाम।।40।। <Br/><Br/>प्रणाम॥40॥  अब देर न कर सज जाने दे <Br/>रण–भेरी भी बज जाने दे। <Br/>अरि–मस्तक पर चढ़ जाने दे <Br/>हमको आगे बढ़ जाने दे।।41।। <Br/><Br/>दे॥41॥  लड़कर अरि–दल को दर दें हम¸ <Br/>दे दे आज्ञा ऋण भर दें हम¸ <Br/>अब महायज्ञ में आहुति बन <Br/>अपने को स्वाहा कर दें हम।।42।। <Br/><Br/>हम॥42॥  मुरदे अरि तो पहले से थे <Br/>छिप गये कब्र में जिन्दे भी¸ <Br/>'अब महायज्ञ में आहुति बन्'¸ <Br/>रटने लग गये परिन्दे भी।।43।। <Br/><Br/>भी॥43॥  पौ फटी¸ गगन दीपावलियां <Br/>बुझ गई मलय के झोंकों से। <Br/>निशि पश्चिम विधु के साथ चली <Br/>डरकर भालों की नोकों से।।44।। <Br/><Br/>से॥44॥  दिनकर सिर काट दनुज–दल का <Br/>खूनी तलवार लिये निकला। <Br/>कहता इस तरह कटक काटो <Br/>कर में अंगार लिये निकला।।45।। <Br/><Br/>निकला॥45॥  रंग गया रक्त से प्राची–पट <Br/>शोणित का सागर लहर उठा। <Br/>पीने के लिये मुगल–शोणित <Br/>भाला राणा का हहर उठा।।46।। <Br/>उठा॥46॥ <Br/poem>
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