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|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
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'''चतुर्दश सर्ग: सगरजनी'''
<font size=4>चतुर्दश सर्ग: सगरजनी</font><br><br>भर तड़प–तड़पकर घन ने आँसू बरसाया। लेकर संताप सबेरे धीरे से दिनकर आया॥1॥
भर तड़प–तड़पकर <Br/>घन ने आंसू बरसाया। <Br/>लेकर संताप सबेरे <Br/>धीरे से दिनकर आया।।1।। <Br/><Br/>था लाल बदन रोने से <Br/>चिन्तन का भार लिये था। <Br/>शव–चिता जलाने को वह <Br/>कर में अंगार लिये था।।2।। <Br/><Br/>था॥2॥  निशि के भीगे मुरदों पर <Br/>उतरी किरणों की माला। <Br/>बस लगी जलाने उनको <Br/>रवि की जलती कर–ज्वाला।।3।। <Br/><Br/>कर–ज्वाला॥3॥  लोहू जमने से लोहित <Br/>सावन की नीलम घासें¸ <Br/>सरदी–गरमी से सड़कर <Br/>बजबजा रही थीं लाशें।।4।। <Br/><Br/>लाशें॥4॥ आंखें आँखें निकाल उड़ जाते¸ <Br/>क्षण भर उड़कर आ जाते¸ <Br/>शव–जीभ खींचकर कौवे <Br/>चुभला–चुभलाकर खाते।।5।। <Br/><Br/>खाते॥5॥  वर्षा–सिंचित विष्ठा को <Br/>ठोरों से बिखरा देते¸ <Br/>कर कांव–कांव काँव–काँव उसको भी <Br/>दो–चार कवर ले लेते।।6।। <Br/><Br/>लेते॥6॥  गिरि पर डगरा डगराकर <Br/>खोपड़ियां फोर रहे थे। <Br/>मल–मूत्र–रूधिर चीनी के <Br/>शरबत सम घोर रहे थे।।7।। <Br/><Br/>थे॥7॥  भोजन में श्वान लगे थे <Br/>मुरदे थे भू पर लेटे। <Br/>खा मांस¸ माँस¸ चाट लेते थे <Br/>चटनी सम बहते नेटे।।8।। <Br/><Br/>नेटे॥8॥  लाशों के फार उदर को <Br/>खाते–खाते लड़ जाते। <Br/>पोटी पर थूथुन देकर <Br/>चर–चर–चर नसें चबाते।।9।। <Br/><Br/>चबाते॥9॥  तीखे दांतों दाँतों से हय के <Br/>दांतों दाँतों को तोर रहे थे। <Br/>लड़–लड़कर¸ झगड़–झगड़कर <Br/>वे हाड़ चिचोर रहे थे।।10।। <Br/><Br/>थे॥10॥  जम गया जहां जहाँ लोहू था <Br/>कुत्ते उस लाल मही पर! <Br/>इस तरह टूटते जैसे <Br/>मार्जार सजाव दही पर।।11।। <Br/><Br/>पर॥11॥  लड़ते–लड़ते जब असि पर¸ <Br/>गिरते कटकर मर जाते। <Br/>तब इतर श्वान उनको भी <Br/>पथ–पथ घसीटकर खाते।12।। <Br/><Br/>खाते।12॥  आंखों आँखों के निकले कींचर¸ <Br/>खेखार–लार¸ मुरदों की। <Br/>सामोद चाट¸ करते थे <Br/>दुर्दशा मतंग–रदों की।।13।। <Br/><Br/>की॥13॥  उनके न दांत दाँत धंसते थे <Br/>हाथी की दृढ़ खालों में। <Br/>वे कभी उलझ पड़ते थे <Br/>अरि–दाढ़ी के बालों में।।14।। <Br/><Br/>में॥14॥  चोटी घसीट चढ़ जाते <Br/>गिरि की उन्नत चोटी पर। <Br/>गुर्रा–गुर्रा भिड़ते थे <Br/>वे सड़ी–गड़ी पोटी पर।।15।। <Br/><Br/>पर॥15॥  ऊपर मंडरा मंडराकर <Br/>चीलें बिट कर देती थीं। <Br/>लोहू–मय लोथ झपटकर <Br/>चंगुल में भर लेती थीं।।16।। <Br/><Br/>थीं॥16॥  पर्वत–वन में खोहों में¸ <Br/>लाशें घसीटकर लाते¸ <Br/>कर गुत्थम–गुत्थ परस्पर <Br/>गीदड़ इच्छा भर खाते।।17।। <Br/><Br/>खाते॥17॥  दिन के कारण छिप–छिपकर <Br/>तरू–ओट झाड़ियों में वे <Br/>इस तरह मांस चुभलाते <Br/>मानो हों मुख में मेवे।।18।। <Br/><Br/>मेवे॥18॥  खा मेदा सड़ा हुलककर <Br/>कर दिया वमन अवनी पर। <Br/>झट उसे अन्य जम्बुक ने <Br/>खा लिया खीर सम जी भर।।19।। <Br/><Br/>भर॥19॥  पर्वत–श्रृंगों पर बैठी <Br/>थी गीधों की पंचायत। <Br/>वह भी उतरी खाने की <Br/>सामोद जानकर सायत।।20।। <Br/><Br/>सायत॥20॥  पीते थे पीव उदर की <Br/>बरछी सम चोंच घुसाकर¸ <Br/>सानन्द घोंट जाते थे <Br/>मुख में शव–नसें घुलाकर।।21।। <Br/><Br/>घुलाकर॥21॥ हय–नरम–मांस हय–नरम–माँस खा¸ नर के <Br/>कंकाल मधुर चुभलाते। <Br/>कागद–समान कर–कर–कर <Br/>गज–खाल फारकर खाते।।22।। <Br/><Br/>खाते॥22॥  इस तरह सड़ी लाशें खाकर <Br/>मैदान साफ कर दिया तुरत। <Br/>युग–युग के लिए महीधर में <Br/>गीधों ने भय भर दिया तुरत।।23।। <Br/><Br/>तुरत॥23॥  हल्दीघाटी संगर का तो <Br/>हो गया धरा पर आज अन्त। <Br/>पर¸ हा¸ उसका ले व्यथा–भार <Br/>वन–वन फिरता मेवाड़–कन्त।।24।। <Br/>मेवाड़–कन्त॥24॥ <Br/poem>
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