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"पूर्वदशा / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

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कोउ, उपचार करत कछु कोउन कोऊ मनावत॥१०५॥
 
कोउ, उपचार करत कछु कोउन कोऊ मनावत॥१०५॥
  
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कोउ अपराध छमावैं निज, पग परि कर जोरैं।
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कोउ झिझकारैं कोउन, बंक जुग भौंह मरोरैं॥१०६॥
  
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सुनि कोलाहल जब प्रधान गृह स्वामिन आवत।
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भागत अपराधी तिन कहँ कोऊ ढूँढ़ि न पावत॥१०७॥
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यों वह बालक पन के क्रीड़ा कौतुक हम सब।
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करत रहे जहँ सो थल हूँ नहिं चीन्ह परत अब॥१०८॥
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नहिं रकबा को नाम, धाम गिरि ढूह गयो बनि।
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पटि परिखा पटपर ह्वै रही सोक उपजावनि॥१०९॥
 
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03:58, 25 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

कँटवासी बँसवारिन को रकबा जहँ मरकत।
बीच बीच कंटकित वृक्ष जाके बढ़ि लरकत॥८७॥

छाई जिन पैं कुटिल कटीली बेलि अनेकन।
गोलहु गोली भेदि न जाहि जाहि बाहर सन॥८८॥

जाके बाहर अति चौड़ी गहरी लहराती।
खंधक तीन ओर निर्मल जल भरी सुहाती॥८९॥

जा मैं तैरत अरु नहात सौ सौ जन इक संग।
कूदत करत कलोल दिखाय अनेक नये ढंग॥९०॥

बने कोट की भाँति सुरक्षित जाके भीतर।
बैरिन सों लरि बचिबे जोग सुखद गृह दृढ़तर॥९१॥

कटी मार दीवारन मैं हित अस्त्र चलावन।
पुष्ट द्वार मजबूत कपाटन जड़े गजवरन॥९२॥

अंतः पुर अट्टालिकान की उच्च दरीचिन।
बैठि लखत ऋतु शोभा सुमुखि सदा चिलवन बिन॥९३॥

औरन सों लखि जबै को भय नहिं जिनके मन।
रहि नभ चुंबित बँसवारिन की ओट जगत सन॥९४॥

शीतल वात न जात, शीत ऋतु जातैं उत्कट।
लहि जाको आघात गात मुरझात नरम झट॥९५॥

व्यजन करत जो तिनहिं बसन्त मन्द मारुत लै।
निज सहवासी तरु प्रसून सौरभ पराग दै॥९६॥

ग्रीषम आतप तपन, छाँह सन छाय बचावत।
खनधक जल कन लै समीर सुभ लूह बनावत॥९७॥

वर्षा मैं बनि सघन सदाघन घेरन की छवि।
राखत रुचिर बनाय देखि नहिं परन देत रवि॥९८॥

निसि मैं जापैं जुरि जमात जीगन की दमकत।
जनु कज्जल गिरि मैं चहुँधा चिनगारी चमकत॥९९॥

परि परिखा तट भूल सेन दादुर की भारी।
करत घोर अन्दोर दाँव हित मनहुँ जुवारी॥१००॥

झिल्लीगन को सारे रोर चातक चहुँ ओरन।
सुनि सखीन सँग सबै नवेली झूलन झूलत॥१०१॥

गावत झूलन सावन, कजरी, राग मलारहिं।
करहिं परस्पर चुहुल नवल चोंचले बघारहिं॥१०२॥

भौजाइन बैठाय, पेंग मारत देवर गन।
लाग डाँट दुहुँ ओरन सों बढ़ि अधिक वेग सन॥१०३॥

पौढ़त झूला, पाट उलटि कै सरकि परत जब।
गिरत सबै तर ऊपर चोट खाय, कोऊ तब॥१०४॥

सिसकत गारी देत कोउन कोऊ, अरु विहँसत।
कोउ, उपचार करत कछु कोउन कोऊ मनावत॥१०५॥

कोउ अपराध छमावैं निज, पग परि कर जोरैं।
कोउ झिझकारैं कोउन, बंक जुग भौंह मरोरैं॥१०६॥

सुनि कोलाहल जब प्रधान गृह स्वामिन आवत।
भागत अपराधी तिन कहँ कोऊ ढूँढ़ि न पावत॥१०७॥

यों वह बालक पन के क्रीड़ा कौतुक हम सब।
करत रहे जहँ सो थल हूँ नहिं चीन्ह परत अब॥१०८॥

नहिं रकबा को नाम, धाम गिरि ढूह गयो बनि।
पटि परिखा पटपर ह्वै रही सोक उपजावनि॥१०९॥