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05:04, 6 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण

कौन हूँ मैं
और मेरे आसपास ये भूले अनभूले कौन हैं
और किसी विलंबित स्वर से तुम कौन हो...
प्रश्नों भरी अंधी कंदराओं में भटक रही हूँ मैं
और उत्तर आंखे गडा़कर खोजने पर भी नहीं मिलते...

यूँ लगता है जैसे मेरी चेतना तपस्विनी हो गई है
और देह से विलग हो गई है
परन्तु साँसे एक अनुक्रम की तरह चल रही हैं
कि मैं जीती हूँ मृत्यु के जश्न की तरह...

देखो मेरा आंचल सिमट कर मेरी मुट्ठी में आ गया है
मेरी लज्जा अब मेरा साथ नहीं निभाती...

मेरे कदम उस शून्य की तरफ बढ़ गये हैं
जहाँ न दुःख का बोझ है
न सुख की अनुभूति ...
जहाँ न सम्बन्धों का संज्ञान है
न संग की तृष्णा...
जहाँ शब्द केवल ध्वनियाँ मात्र हैं...
जहाँ आँखों में दृष्टि तो है
परन्तु प्रकाश का रंग स्याह है...

ये आत्मविसर्जन का अनुष्ठान है
मैं डूब रही हूँ
परन्तु मदद के लिये पुकार भी कितनी असाध्य है...

मेरी स्मृतियों का एल्बम रिक्त हो गया है
हाँ मैं नहीं पहचान पाती तुम्हें
मुझे कृतज्ञता का बोध भी नहीं है...

पर सुनो
तुम न भूलना मुझे
अपने हाथों से सवाँरना मेरे केश
ओढ़नी ओढ़ाना नेह के स्पर्श की...
मेरे अस्तित्व को आकार तुम देना
चुका देना सारे ऋण यहीं