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"भय / मोहन राणा" के अवतरणों में अंतर

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18.8.2002
 
18.8.2002
 
 
 
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होगा एक और शब्द
 
 
 
नीली रंगते बदलती
 
आकाश और लहरों की
 
बादल गुनगुनाता कुछ
 
सपना सा खुली आँखों का
 
कैसा होगा यह दिन
 
कैसा होगा
 
यह वस्त्र क्षणों का
 
ऊन के धागों का गोला
 
समय को बुनता
 
उनींदे पत्थरों को थपकाता
 
 
होगा एक और शब्द
 
कहने को 
 
यह किसी और दिन
 
 
 
 
 
 
 
 
28.5.2001
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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किसी आशा में
 
 
 
गूंगे शब्दों से
 
भरा मुँह
 
शैवालों से भरी किताबें
 
आज का दिन भी नहीं कहता
 
कुछ नया,
 
खोल देता हूँ खिड़की दरवाजे
 
किसी आशा में
 
 
 
 
 
 
 
5.9.2001
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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स्कूल
 
 
 
पहले मुझे किताब की जिल्द मिली
 
फिर एक कॉपी
 
बस्ते में और कुछ नहीं बचा इतने बरस बाद
 
घंटी सुनते ही जाग पड़ा
 
मैदान में कोई नहीं था दसवीं बी में भी कोई नहीं
 
क्या आज स्कूल की छुट्टी है सोचा मैंने
 
हवाई जहाज मध्य यूरोप में कहीं था और मैं
 
कई बरस पहले अपने स्कूल
 
 
धरती ने ली सांस
 
हँसा समुंदर
 
आकाश खोज में है अनंतता की
 
 
बहुत पहले मैंने उकेरा अपना नाम मेज पर
 
समय की त्वचा के नीचे धूमिल
 
कोई तारीख
 
 
कोई दोपहर उड़ा लाती हवा के साथ
 
किसी बात की जड़
 
मैं वह दीवार हूँ
 
जिसकी दरार में उगा है वह पीपल
 
 
 
 
 
5.9.2006
 
 
 
 
 
 
 
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कुछ पाने की चिंता
 
 
अपने ही विचारों में उलझता
 
यहाँ वहाँ
 
क्या तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ कभी,
 
जो अब याद नहीं
 
 
बात किसी अच्छे मूड से हुई थी
 
कि लगा कोई पंक्ति पूरी होगी
 
पर्ची के पीछे
 
उस पल सांस ताजी लगी
 
और दुनिया नयी,
 
यह सोचा
 
और साथ हो गई कुछ पाने की चिंता
 
 
मैं धकेलता रहा वह और पास आती गई,
 
अच्छा विचार नहीं बचा सकता
 
मुझे अपने आप से भी,
 
उसे खोना चाहता हूँ
 
नहीं जीना चाहता
 
किसी और का अधूरा सपना
 
 
 
 
 
 
30.8.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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अस्मिता
 
 
क्या मैं हूँ वह नहीं
 
जो याद नहीं अब,
 
जो है वह किसी और की स्मृति नहीं क्या
 
जिनसे जानता पहचानता अपने आपको
 
मनुष्य ही नहीं पेड़- पंछी
 
हवा आकाश
 
मौन धरती
 
घर खिड़की
 
एक कविता का निश्वास!
 
 
पर ये नहीं किसी और की स्मृति क्या?
 
जो याद है बस
 
भूलकर कुछ
 
 
 
13.8.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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कौन
 
 
 
बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
 
मैं ठीक करता टूटी हुई चीजों को
 
उठा कर सीधा करता
 
गिरी हुई को
 
कतरता पोंछताझाड़ता बुहारता,
 
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
 
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
 
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
 
कहते सामान्य
 
सब कुछ नया साफ सुथरा
 
जैसे मैं देखता उसे इस पल
 
और बदलता तभी
 
छूटता मेरे हाथों से
 
जैसे वह कभी ना था वहाँ,
 
कौन! रुक कर पूछता मैं
 
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें
 
 
 
 
 
11.9.2005
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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गिरगिट 
 
 
हम रुक कर चौंकते हैं जैसे पहली बार
 
देखते एक दूसरे को
 
जानते हुए भी कि पहचान पुरानी है,
 
करते इशारा एक दिशा को
 
वह हरा कैसा है क्या रंग वसंत का है!
 
वह गर्मियों का भी नहीं लगता,
 
आइये ना वहाँ साथ सुनने कुछ कविताएँ
 
पर उन वनों में विलुप्त है सन्नाटा
 
अनुपस्थित है चिड़ियाँ
 
कातर आवाजें वहाँ...
 
कैसे मैं जाऊँ वहाँ कविताएँ सुनने,
 
 
हम रुकते हैं पलक झपकाते
 
झेंपते
 
जैसे छुपा न पाते झूठ को कहीं टटोलते
 
कोई जगह
 
बदलते कोई रंग
 
कोई चेहरा
 
 
 
 
 
27.4.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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अपवाद
 
 
तुम अपवाद हो इसलिए
 
अपने आप से करता मेरा विवाद हो,
 
सोचता मैं कोई शब्द जो फुसलादे
 
मेरे साथ चलती छाया को
 
कुछ देर कि मैं छिप जाऊँ किसी मोड़ पे,
 
देखूँ होकर अदृश्य
 
अपने ही जीवन के विवाद को
 
रिक्त स्थानों के संवाद में.
 
 
 
 
 
26.11.2005
 
 
 
 
 
 
 
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वसंत
 
 
सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ
 
यही सोचते मैं बदलता करवट,
 
परती रोशनी में सुबह की
 
लापता है वसंत इस बरस,
 
हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार,
 
पर उसमें ना कोई अता है ना पता
 
ना ही कोई पहचान
 
मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा
 
यदि वह मिला कहीं
 
क्या मैं पूछूँगा उसकी अनुपस्थिति का कारण
 
कि इतनी छोटी सी मुलाकात
 
क्या पर्याप्त
 
फिर से पहचानने के लिए
 
तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी
 
कि याद आए कुछ
 
जो भूल ही गया,
 
अनुपस्थित स्पर्श
 
 
 
 
21.3.2006
 
 
 
 
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तुम्हारा  कभी कोई नाम ना था
 
 
 
वे व्यस्त हैं
 
वे महत्वपूर्ण काम में लगे लोग हैं
 
मुझे शिकायत नहीं वे व्यस्त
 
मेरे हर सवाल पर उनका हाल
 
कि वे व्यस्त हैं,
 
रुक कर देखने भर को कि अब नहीं मैं उनके साथ चलता
 
पर वे ही बुदबुदाते कोई मंत्र
 
मैं व्यस्त हूँ
 
मैं व्यस्त हूँ
 
सदा समय के साथ
 
सदा समय के साथ
 
 
पर कान वाले लोग बहरे हैं,
 
और 20/20 आँख वाले अँधों की तरह टटोल रहे हैं दिन को.
 
 
और समय वही दोपहर के 11:22
 
कहीं शाम हो चुकी होगी
 
कहीं अभी होती होगी सुबह नयी
 
कहीं आने वाली होगी रात पुरानी
 
 
क्या तुम लिखती ना थी कविताएँ कभी
 
पूछता उससे
 
जैसे कुछ याद आ जाए उसे,
 
लिखती थी कभी, पर अब अपना नाम भी नहीं लिखती,
 
कौन सा नाम मैं पूछता उसकी खामोशी को
 
जो अब याद नहीं
 
कि भूलना कठिन है तुम्हें
 
 
 
16.11.2005
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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अजनबी  बनता  पहचान
 
 
 
देखें तो कौन रहता है इस घर में
 
किसी आश्चर्य की आशा
 
धीरज से हाथ बाँधे खड़ा
 
मैं देता दस्तक दरवाज़ेपर
 
सोचता- कितना पुराना है यह दरवाज़ा
 
सुनता झाडि़यों में उलझती हवा को
 
ट्रैफिक के अनुनाद को
 
सुनता अपनी सांस को बढ़ती एक धड़कन को
 
पायदान पर जूते पौंछता
 
दरवाज़ेपे लगाता कान
 
कि लगा कोई निकट आया भीतर दरवाज़ेके
 
बंद करता आँखें
 
देखता किसी हाथ को रुकते एक पल सिटकनी को छूते
 
निश्वास जैसे अनंत सिमटता वहीं पर,
 
 
भीतर भी
 
बाहर भी
 
मैं ही जैसे घर का दरवाज़ा
 
अजनबी बनता
 
पहचान बनाता
 
 
 
 
 
 
28.2.2006
 
 
 
 
 
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सच का हाथ
 
 
ये आवाजें
 
ये खिंचे हुए
 
उग्र चेहरे
 
चिल्लाते
 
 
मनुष्यता खो चुकी
 
अपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार में
 
बस टटोलती एक क्रूर धरातल को,
 
कि एक हाथ बढ़ा कहीं से
 
जैसे मेरी ओर
 
आतंक से भीगे पहर में
 
कविता का स्पर्श,
 
मैं जागा दुस्वप्न से
 
आँखें मलता
 
पर मिटता नहीं कुछ जो देखा
 
 
 
7.2.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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सर्दियाँ
 
 
जमे हुए पाले में
 
गलते पतझर को फिर चस्पा दूँगा पेड़ों पर
 
हवा की सर्द सीत्कार कम हो जाएगी,
 
जैसे अपने को आश्वस्त करता
 
पास ही है वसंत
 
इस प्रतीक्षा में
 
पिछले कई दिनों से कुछ जमा होता रहा
 
ले चुका कोई आकार
 
कोई कारण
 
कोई प्रश्न
 
मेरे कंधे पर
 
मेरे हाथों में
 
जेब में
 
कहीं मेरे भीतर
 
कुछ जिसे छू सकता हूँ
 
यह वज़नअब हर  उसांसमें धकेलता मुझे नीचे
 
किसी समतल धरातल की ओर,
 
 
 
 
 
4.2.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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ढलती एक शाम
 
 
 
कितने आयाम कि चैन नहीं जिसमें
 
ली यह सांस करने यह सवाल
 
कि नहीं करूँगा फिर वही सवाल,
 
मैं चिड़िया हूँ या पतंग
 
या दोनों ही हूँ एक साथ
 
उस आयाम में
 
ढलती एक शाम
 
 
 
 
 
 
29.1.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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कविता
 
 
 
कविता जीवन का क्लोरोफिल
 
और जीवन सृष्टि का पत्ता
 
उलटता पृष्ठ यह सोचकर
 
कौन सोया है इस वृक्ष की छाया में
 
किसका यह सपना
 
जो देखता मैं
 
उसे अपना समझ कर.
 
 
 
 
 
 
22.1.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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पावती
 
 
 
लौटती हुई रचनाएँ
 
किसे होता है खेद
 
संपादक को
 
कवि को ?
 
शहडोल के शर्मा जी को
 
परीक्षाओं के कुंजीकारों को
 
नई सड़क की भीड़ को
 
किसी अधूरे
 
बड़बड़ाए वाक्य को
 
किसे होता है खेद इस चुप्पी में
 
 
मुझे कोई खेद नहीं
 
उन्हें भी कोई खेद नहीं
 
फिर यह पावती किसके लिए
 
 
 
 
 
9.2.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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झपकी
 
 
 
नंगे पेड़ों पर
 
उधड़ी हुई दीवारों पर
 
बेघर मकानों पर
 
खोए हुए रास्तों पर
 
भूखे मैदानों पर
 
बिसरी हुई स्मृतियों पर
 
बेचैन खिड़कियों पर
 
छुपी हुई छायाओं में बीतती दोपहर पर,
 
हल्का सा स्पर्श
 
ढांप लेता हूँ उसे हथेलियों से,
 
उठता है मंद होते संसार का स्वर
 
आँख खुलते ही
 
 
 
 
 
3.2.2005
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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भंवर
 
 
अंगूर की बेलों में लिपट
 
सो जाती धूप बीच दोपहर
 
गहरी छायाओं में
 
सोए हैं राक्षस
 
सोए हैं योद्धा
 
सोए हैं नायक
 
सोया है पुरासमय खुर्राता
 
अपने आपको दुहराते अभिशप्त वर्तमान में
 
 
 
 
 
4.12.2005
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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चश्मा
 
 
 
कभी कभी लगाता हूँ
 
पर खुदको नहीं
 
औरों को देखने के लिए लगाता हूँ चश्मा,
 
कि देखूँ मैं कैसा लगता हूँ उनकी आँखों में
 
उनकी चुप्पी में,
 
कि याद आ जाए तो उन्हें आत्मलीन क्षणों में मेरी भी
 
आइने में अपने को देखते,
 
मुस्कराहट के छोर पर.
 
 
 
 
 
2.12.2005
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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सड़क पर
 
 
 
 
चीखती हुई कुछ बोलती
 
चिड़ियाँ लगाती बेचैन सूखते आकाश में गोता
 
यह एक चलता हुआ घर
 
भागती हुई सड़क पर
 
यह एक बोलती खामोश दोपहर
 
 
 
 
 
 
 
14.7.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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यदि
 
 
 
वे मर जाएँगे
 
तो विलुप्त हो जाएँगी लहरें
 
पत्थर हो जाएगी नदी
 
जीवाश्म हो जाएँगी मछलियाँ पानी में
 
नाव खो देगी अपना किनारा,
 
यदि लहरों के राजहँस मर जाएँ.
 
हम रुके रह जाएँगे
 
अतीत में किसी वर्तमान को खोजते
 
 
 
 
8.4.2006
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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कोई आकर पूछे
 
 
 
रुके और पहचान ले
 
अरे तुम
 
जैसे बस पलक झपकी
 
कि रुक गया समय भी
 
कुछ अधूरा दिख गया
 
और याद करते
 
कुछ अधूरा छूट गया
 
फिर से
 
चलते चलते
 
 
 
 
 
1.8.2005
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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किताब
 
 
 
 
रुकते अटकते कभी
 
थक कर खो जाते अपनी ही उम्मीदों में
 
निराशा को पढ़ते हुए सुबह की डाक में
 
 
 
पूरी हो गई एक किताब
 
किसी अंत से शुरू होती
 
किसी आरंभ पर रुक जाती
 
पूरी हो गई एक किताब
 
 
 
आकाश गंगा में एक
 
बूंद पृथ्वी
 
भटकते अंधकार में
 
 
 
 
 
 
 
 
17.9.2004
 
 
 
 
 
 
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सवाल
 
 
क्या यह पता सही है?
 
मैं कुछ सवाल करता
 
सच और भय की अटकलें लगाते
 
एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता
 
विस्मृति के झोले में
 
 
और वह बेमन देता जवाब
 
अपने काज में लगा
 
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
 
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
 
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
 
 
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा
 
मैं सच को
 
वह समझने वाली बाती नहीं
 
कि समझा सके कोई सच,
 
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे
 
चलता इस उम्मीद में कि आगे कोई मोड़ ना हो
 
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
 
किधर जाता है यह रास्ता,
 
 
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
 
यही जान पाता कि सबकुछ
 
बस यह पल
 
हमेशा अनुपस्थित
 
 
 
 
12.7.
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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भूल-भुलैया
 
 
 
अधजागा ही सोया गया मैं
 
फिर भी बंद न हुआ सोचना
 
झरती रही कतरनें मन में
 
तुम्हें याद करते
 
कभी हँस देता
 
कभी सोचता
 
कोई और संभावना
 
 
 
उस रास्ते पर अब चौड़ी सड़क है
 
चहल पहल पर वह जगह नहीं
 
जो वहाँ थी
 
बस स्मृति है !
 
हर गली से हम पहुँचते फिर उसी सड़क के कोने पर
 
अधजागा मैं बढ़ाता हाथ
 
छूटते सपने की ओर,
 
कोई आता निकट
 
दूर होता जाता भूल-भुलैया में
 
फिर वहीं अपने संशय के साथ
 
 
 
 
24.11.2003
 
 
 
 
 
 
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अंत में
 
 
 
 
बंद कर देता हूँ
 
अपने को सुनना
 
कानों से हाथों को हटाकर
 
बंद कर देता हूँ
 
कुछ कहना
 
शुरू करता हूँ
 
जानना
 
बिना किताबों के
 
बिना उपदेशों के
 
बिना दिशा सूचक के
 
बिना मार्गदर्शक के
 
बिना नक्शे के
 
बिना ईश्वर के
 
बस जानना
 
 
 
 
 
25.10.2004
 

11:49, 28 अप्रैल 2008 का अवतरण

लताओं से लिपटे पुराने पेड़

गहरी छायाओं में सोया है जंगल

मेरी बढ़ती हुई धड़कन में

सहमा है रक्त

उत्तेजना में देखता हूँ

छुपे हुए चेहरों को

उतरते हुए मुखौटों को

छनती हुई रोशनी के आर पार

जो पहुँच जाती है मेरी जड़ों में भी,

क्यों चला आया मैं यहाँ

अकेले ही

जो नहीं था उसे

ले आया यहाँ



18.8.2002