भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दीप और मैं / श्वेता राय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्वेता राय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGee...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatGeet}}
 
{{KKCatGeet}}
 
<poem>
 
<poem>
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते
+
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना।
  
याद तुम्हारी वनफूलों सी
+
किरण डूबती जब सँझा को
महकाती है अंतर्मन को
+
तब जगती मेरी तरुणाई
भावों की कोमल अंगड़ाई
+
खुद हो जाती छिन्न भिन्न मैं
बहकाती है कोमल तन को
+
करता जब अँधियार लड़ाई
काश! कभी अपनी पलकों से हम तेरा अर्चन कर लेते
+
शर्वरी के गहरे साये में तय है एकाकी जल जाना
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते
+
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
  
तेरी साँसों की वीणा पर
+
रातों को तो फ़ैल चाँदनी
सजना चाहूँ सरगम बनकर
+
है बस प्रीत का राग सुनाती
तेरे अंतस के आँगन में
+
देहरी और सूने आँगन में
बसना चाहूँ धड़कन बनकर
+
मैं ही आस का दीप जलाती
काश! कभी मेरे सपनोँ को तुम अपना अवलम्बन देते
+
ऊषा की किरणों संग जिसको पलभर में है मिट जाना
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते
+
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
  
मेरे सपनोँ की नियति ज्यूँ
+
आस यही विश्वास यही कि
लहरों का तट से टकराना
+
व्यर्थ नही मेरा जीवन
हरपल टूटे पागल मन से
+
तिल तिल खुद को जला जला कर
तेरे छल को प्रीत बताना
+
किया अमर अपना यौवन
काश! कभी मेरी बाँहों में तुम अपना सब अर्पण करते
+
मेरे प्राण निराश न हो तुम, तमिस्रा से है बैर पुराना
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते...
+
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
 
</poem>
 
</poem>

11:14, 2 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना।

किरण डूबती जब सँझा को
तब जगती मेरी तरुणाई
खुद हो जाती छिन्न भिन्न मैं
करता जब अँधियार लड़ाई
शर्वरी के गहरे साये में तय है एकाकी जल जाना
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना

रातों को तो फ़ैल चाँदनी
है बस प्रीत का राग सुनाती
देहरी और सूने आँगन में
मैं ही आस का दीप जलाती
ऊषा की किरणों संग जिसको पलभर में है मिट जाना
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना

आस यही विश्वास यही कि
व्यर्थ नही मेरा जीवन
तिल तिल खुद को जला जला कर
किया अमर अपना यौवन
मेरे प्राण निराश न हो तुम, तमिस्रा से है बैर पुराना
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना