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दीप और मैं / श्वेता राय

74 bytes added, 05:44, 2 फ़रवरी 2017
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काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेतेमैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना।
याद तुम्हारी वनफूलों सीकिरण डूबती जब सँझा कोमहकाती तब जगती मेरी तरुणाईखुद हो जाती छिन्न भिन्न मैंकरता जब अँधियार लड़ाईशर्वरी के गहरे साये में तय है अंतर्मन कोएकाकी जल जानाभावों मैं दीये की कोमल अंगड़ाईबहकाती वो बाती हूँ जिसको जल के है कोमल तन कोकाश! कभी अपनी पलकों से हम तेरा अर्चन कर लेतेकाश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेतेबुझ जाना
तेरी साँसों की वीणा पररातों को तो फ़ैल चाँदनीसजना चाहूँ सरगम बनकरहै बस प्रीत का राग सुनातीतेरे अंतस के देहरी और सूने आँगन मेंबसना चाहूँ धड़कन बनकरमैं ही आस का दीप जलातीकाश! कभी मेरे सपनोँ को तुम अपना अवलम्बन देतेऊषा की किरणों संग जिसको पलभर में है मिट जानाकाश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेतेमैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
मेरे सपनोँ की नियति ज्यूँआस यही विश्वास यही किलहरों का तट से टकरानाव्यर्थ नही मेरा जीवनहरपल टूटे पागल मन सेतेरे छल तिल तिल खुद को प्रीत बतानाजला जला करकाश! कभी मेरी बाँहों में तुम किया अमर अपना सब अर्पण करतेयौवनकाश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते...मेरे प्राण निराश न हो तुम, तमिस्रा से है बैर पुरानामैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
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