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कृष्ण जन्म / श्वेता राय

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मेवाड़ी माटी की गाथायुग युगों में एक युग था, कर लो याद जुबानी। कह रहे द्वापर जिसे। राणा के निज रण कौशल इक नगर उस काल में था,सब कहें मथुरा उसे॥दो नगर कीहै कथा ये, कह रही संसार से। सुन जिसे हो धन्य सारे, अद्भुत ओज़ कहानी॥लीजिये गुन प्यार से॥
टुकड़ों में था देश बँटा तबशूरवंशी भूप थे इक, मन अकबर ललचाया। पुत्र उनका कंस था। आधिपत्य की चाह लिए कर्म ऐसे थे लगे कि, पाप का वो,युद्धभूमि में आया॥अंश था॥जाना है अब क्षेत्र समर मेंछीन कर गद्दी पिता की, राणा मन डाल कारा में ठाने। दिया। माटी से बढ़ न्याय का दीपक बुझा कर कब कोई, बात यही वो जाने॥घोर अपयश था लिया॥
हल्दीघाटी में वीरों काइक बहन उसकी दुलारी, रक्त बहा बन पानी। प्राण से प्यारी उसे। राणा के निज रण कौशल कीदेवकी था नाम जिसका, मानता हिय से जिसे॥व्याह कर वसुदेव जिसको, द्वारिका लेकर चले। हाय नियती का लिखा पर, अद्धभुत ओज कहानी॥टालने से कब टले॥
राणा ने हुंकार भरी जबदेवकी दुल्हन बनी थी, साथ मिले सब आये। में वसुदेव थे। माटी के गौरव की खातिरसारथि बन कंस बैठा, सबने हाथ मिलाये॥कब कहाँ कुछ भेव थे॥तेग बढ़ा फिर हाकिम खां का,मन मन्ना हरसाये। देव वाणी तब हुई कि मूर्ख! सुन तू रुक जरा। देशप्रेम में उन्मुख सबनेडोलता जिसको सुने नभ, चढ़ बढ़ शीश कटाये॥डोलती सुन कर धरा॥
एकलिंग जयकार लिए फिरआठवां सुत देवकी का, लड़ गये रजस्थानी। काल बनकर आ रहा। राणा के निज रण कौशल रूप धरकर वो अनूठा, मृत्यु तेरी ला रहा॥काल कीये बात सुनकर, कंस व्याकुल हो गया। मार दूँ वसुदेव को ही, अद्भुत ओज कहानी॥धैर्य उसका खो गया॥
मन से थे सब प्रबल मुखर परदेवकी कर जोड़ कहती, संख्या बल में थे कम। तात! ऐसा मत करो। तार हुआ था माँ प्राण का आँचलतुम दान देकर, आँखें सबकी थी नम॥आस जीवन की भरो॥खेल देख कर नियती का येपुत्र से है भय तुम्हें तो, राणा मन घबराया। जन्मते लेना तुम्हीं। थके हुये चेतक ने भी तोआठवां सुत प्राप्त कर के, अपना धर्म निभाया॥मुक्ति भी देना तुम्हीं॥
छू न सका राणा डाल कारा में बहिन को कोई, चेतक वो बलिदानी। कर दिया पहरा कड़ा। मूर्ख पापी चूर मद में, भाग्य से लड़ने खड़ा॥रोक पाया है भला कब, चाल कोई काल की। राणा के निज रण कौशल कीचतुर्दिश में गूँजती है, अद्भुत ओज़ कहानी॥मृदंग जिसके ताल की॥
छोड़ दिया रण इसीलिए थादिन महीने बरस बीते, जन्मभूमि देवकी रोती रही। कर्म को पाना। अपना शीश कटा कर उनकोबस कोसती औ, स्वर्ग नही था जाना॥सुत सभी खोती रही॥पैदल पैदल वन में भटकेआठवाँ सुत गर्भ आया,खाई रोटी सूखी। मुख मलिन उसका पड़ा। मातृभूमि को पाना है फिरबोलती वसुदेव से वो, चाह यही थी भूखी॥भाग्य क्यों ऐसा लड़ा॥
कायर कहने वाले मात कैसी हूँ प्रिये मैं, कर कहाँ कुछ पा रही। तात को दे पुत्र अपने, पीर सहती जा रही॥कब सुनेंगें प्रभु हमारे, कब मिलेगा न्याय भी। कब हरेंगें कष्ट सारा, बढ़ रहा अन्याय भी॥ देवकी सुन लोधैर्य रख अब, राणा थे अभिमानी। दिख रहा अब काल है। मेवाड़ी माटी आ रहा जो गर्भ तेरे, गति लिये विकराल है॥कष्ट सारे दूर होंगें, अब हमारे लाल से। दुष्ट का भी अंत होगा, सुन सुदर्शन चाल से॥ अश्रु नैनो में समेटे, देवकी सोने चली। हाय! जीवन की गाथाघड़ी ये, कब लगे उसको भली॥कब दिखेगा मुक्त सूरज, ये हवा औ चंद अब। कब बढ़ेगी गति समय की, हो गयी जो मंद अब॥ सिसकते दोनों पड़े थे, हार कर निज भाग्य से। हो प्रगट अब कष्ट हर लो याद जुबानी॥,कह रहे आराध्य से॥इक अलौकिक दिव्य मानव, आ खड़ा सम्मुख हुआ। तेज ऐसा था अनोखा, देख मन को सुख हुआ॥ चतुर्भुज था रूप जिनका, लग रहे भगवान थे। देवकी वसुदेव दोनों,हो उठे हैरान थे॥पाँव पर हैं गिर पड़े वो, बोलते प्रभु पीर सुन। है हृदय में कष्ट भारी, रख न पायें धीर सुन॥ बोलते प्रभु आ रहा माँ!, गर्भ में बन लाल मैं। धर्म की स्थापना को, बन रहा हूँ काल मैं॥भाद्रपद की अष्टमी को, जन्म मेरा हो रहा। इस तिथी से कंस का है, भाग्य जग में सो रहा॥ इस दिवस को गाँव गोकुल, हर्ष छायेगा सुनो। नन्द के घर जन्म लेगी, योगिनी माया सुनो॥पुत्र अपना रख वहां पर, साथ लाना तुम उसे। कंस के निज हाथ में फिर, सौंप देना है जिसे॥ आ गया दिन वो सुहावन, देवकी बेहाल सी। सह रही थी पीर भारी, हो रही है निहाल भी॥पुण्य तिथि थी रोहिणी की, थी अँधेरी रात भी। गरजती थीं सब दिशायें, हो रही बरसात भी॥ वेग युमना का बढ़ा था, सूझता कर को न कर। अवतरित होते तभी प्रभु, बाल का है रूप धर॥खुल गये फिर द्वार कारा,टूटते सब बंध भी। आह! नियती गढ़ रही थी, अब नवल संबंध भी॥ सूप में रख पुत्र को निज, वसुदेव बढ़ते जा रहे। देखकर विकराल यमुना,कुछ समझ कब पा रहे॥पार कर जाऊँ इसे मैं, राह पर दिखती नही। भाग्य से विपदा हमारे, हाय! क्यों मिटती नही ? बाल भगवन पाँव से फिर, छू दिए सरि धार को। वेग यमुना का हुआ कम, बस नमन प्रभु प्यार को॥नन्द के घर पहुंच कर वो, पुत्र अपना रख दिये। लौटते मथुरा को' वापस, नंद पुत्री को लिए॥ कंस को जब ज्ञात होता, देवकी पुत्री जनी। आ गया लेने उसे वो,भाग्य का समझे धनी॥मार देता हूँ इसे मैं, काल मेरी है यही। छूट कर माया उडी औ, बोलती वो भी वही।  सुन रे मूरख! इस धरा पर, पाप तूने है किया। आ गया है काल तेरा, जनम उसने ले लिया॥मार सकता है उसे यदि, मार कर तू देख तो। देख सकता है यदि तो, देख नियती रेख को॥ हो गई अदृश्य कन्या, कंस पागल हो गया। क्या करे क्या ना करे अब, धैर्य उसका खो गया॥देवकी वसुदेव दोनों, बंद अब यूँ ही रहो। काल को जब तक न मारूँ, दर्द सारे तुम सहो॥ ये कथा अब पूर्ण होती, कृष्ण के अवतार की। सुन जिसे सब धन्य होते, है अमिट संसार की॥धर्म के प्रसार की...प्रेम के अभिसार की.. यूँ कथा है पूर्ण होती, प्यार ही बस प्यार की..
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