"बिहारी सतसई / भाग 17 / बिहारी" के अवतरणों में अंतर
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कन दैबौ सौंप्यो समुर बहू थुरहथी जानि।
रूप रहचटैं लगि लग्यौ माँगन सबु जगु आनि॥161॥
कन = कण = भिक्षा। बहू = वधू = पतोहू। थुरहथी = छोटे हाथों वाली। रहचटैं = चाह, लालच। लगि = लगकर। आनि = आकर।
(कंजूस) ससुर ने भिक्षा देने का (भार उसी को) सौंपा (इसलिए कि हथेली छोटी है, भिक्षुकों को थोड़ा ही अन्न दिया जा सकेगा); किन्तु (उसके) रूप के लालच में पड़ सारा संसार ही आकर (उससे भिक्षा) माँगने लगा!
नोट - छोटी हथेली स्त्रियों की सुन्दरता का सूचक है।
त्यौं त्यौं प्यासेई रहत ज्यौं ज्यौं पियत अघाइ।
सगुन सलोने रूप की जु न चख-तृषा बुझाइ॥162॥
अघाइ = अफरकर, तृप्तिपूर्वक, छककर। सगुन = गुणसहित। सलोने = लावण्ययुक्त, नमकीन। चख = नेत्र। तृषा = प्यास।
जितना ही अघा-अघाकर पीते हैं, उतना ही प्यासे रह जाते हैं। गुणों से युक्त लावण्य-भरे रूप की- इन नेत्रों की-प्यास शान्त नहीं होती-अर्थात् इन नेत्रों को उसके लावण्यमय रूप के देखने की जो प्यास है, वह नहीं बुझती।
नोट - ‘सलोने’ शब्द यहाँ पूर्ण उपयुक्त है। नमकीन पानी पीने से प्यास नहीं बुझती। त्योंही लावण्यमय रूप देखने से आँखें नहीं ऊबतीं या अघातीं।
रूप-सुधा-आसव छक्यौ आसव पियत बनै न।
प्यालै ओठ प्रिया-बदन रह्यौ लगाऐं नैन॥163॥
रूपसुधा = अमृत के समान मधुर रूप। आसव = मदिरा। छक्यौ = भरपेट पीने से। बदन = मुख।
अमृततोपम सौंदर्य-रूपी मदिरा पीने के कारण (साधारण) मदिरा पीते नहीं बनती। (मदिरा के) प्याले तो ओंठ से लगे हैं, और आँखें प्यारी के मुख पर अड़ी हैं, वह एकटक प्यारी का मुख देख रहा है, पर बेचारे से मदिरा पी नहीं जाती।
दुसह सौति सालैं सुहिय गनति न नाइ बियाह।
धरे रूप-गुन को गरबु फिरै अछेह उछाह॥164॥
गनति न = नहीं गिनती, परवा नहीं करती। नाह = पति। अछेह = अनन्त, अधिक। उछाह = आनन्द, उत्साह।
सौतिन सदा दुस्सह होती है, वह हृदय में सालती है (यह जानकर भी वह नायिका) पति के (दूसरे) विवाह की परवा नहीं करती। (अपने) रूप और गुण के गर्व में मस्त हो अनन्त आनन्द से विचार रही है।
लिखन बैठि जाकी सवी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर॥165॥
सबी = चित्र। गरूर = अभिमान। केते = कितने। चितेरे = चित्रकार। कूर = बेवकूफ।
(उस नायिका के रूप का क्या कहना!) जिसके चित्र को अत्यन्त गर्व और अभिमान के साथ बनाने के लिए बैठकर संसार के कितने चतुर चित्रकार बेवकूफ बन गये-उनसे चित्र नहीं बन सका!
नोट - शल्क तो देखो मुसव्विर खींचेगा तसवीरे यार।
आप ही तसवीर उसको देखकर हो जायगा॥-ज़ौंक़
(सो.) तो तन अवधि अनूप, रूप लग्यौ सब जगत कौ।
मो दृग लागे रूप, दृगनु लगी अति चटपटी॥166॥
अवधि = सीमा, हद। दृग = आँख। चटपटी = व्याकुलता।
तुम्हारा शरीर अनुपमता की सीमा है-इसकी समानता संसार में है ही नहीं। (क्योंकि इसके रचने में) संसार-भर का सौंदर्य लगाया गया है- (जहाँ, जिस पदार्थ में, कुछ सौंदर्य मिला, सब का संमिश्रण इसमें कर दिया गया है)- मेरी आँखों में (तुम्हारा वह) रूप आ लगा है-समा गया है; (फलतः) आँखों में अत्यन्त व्याकुलता छा गई है-वे व्याकुल बनी रहती हैं।
नोट - ठाकुर कवि के ”कंचन को रंग लै सवाद लै सुधा को वसुधा को सुख लूटिकै बनायो मुख तेरो है“ के आधार पर पं. रामनरेश त्रिपाठी के ‘पथिक’ में सौंदर्य-सामग्रियों का कथन यों किया गया है-
कहते थे तुम कोमलता नीरज की, ज्योति रतन की।
मोहकता शशि की, गुलाब की सुरभि, शान्ति सज्जन की॥
रति का रूप, कंचन कंचन का, लेकर स्वाद सुधा का।
बिरचा है विधि ने मुख तेरा सुख लेकर वसुधा का॥
त्रिबली नाभि दिखाइ कर सिर ढँकि सकुच समाहि।
गली अली की ओट ह्वै चली भली विधि चाहि॥167॥
त्रिबली = नाभी के निकट की तीन रेखाएँ। सकुच समाहि = लाज में समाकर, लज्जित होकर। अली = सखी। चाहि = देखकर।
त्रिबली और नाभी दिखकर (फिर) लज्जित हो सिर ढँककर हाथ उठाकर-हे सखि, वह (अपनी) सखियों की ओट हो भली भाँति (नायक को) देखती हुई गली में चली गई।
देख्यौ अनदेख्यौ कियै अँगु-अँगु सबै दिखाइ।
पैंठति-सी तन मैं सकुचि बैठी चितै लजाइ॥168॥
सकुचि = संकोच करके। लजाय = लजाकर।
(पहले तो उस नायिका ने) सभी अंग-प्रत्यंग दिखाकर (नायक को) देखती हुई भी अनदेख कर दिया-यद्यपि वह उसे देख रही थी, तो भी न देखने का बहाना करके अपने सभी अंग उसे दिखा दिये। (फिर उस नायक के) तन में पैठती हुई-सी-उसके चित्त में खुबती हुई-सी-वह मन में लजाकर संकोच के साथ बैठ गई।
बिहँसि बुलाइ विलोकि उत प्रौढ़ तिया रसघूमि।
पुलकि पसीजति पूत कौ पिय चूम्यौ मुँहु चुमि॥169॥
बिहँसि =हँसकर, मुस्कुरा। उत =उधर। प्रौढ़ = प्रौढ़ा, पूर्णयौवना। रसघूमि = रस में मस्त होकर। पुलकि = रोमांचित होकर। पसीजति = पसीजती है, पसीने से तर होती है।
हँसकर, बुलाकर, (और) उधर (नायक की ओर) देखकर वह पूर्णयौवना स्त्री, रस में मस्त हो, पति द्वारा चूके गये अपने पुत्र के मुख को चूमकर, रोमांचित तथा पसीने से तर होती है।
रहौ गुही बेनी लखे गुहिबे के त्यौनार।
लागे नीर चुचान जे नीठि सुखाये बार॥170॥
रहौ = रह जाओ, ठहरो। त्यौनार = ढंग। नीर = पानी। नीठि = मुश्किल से। बार = बाल, केश।
ठहरो भी, (तुम) वेणी गूँथ चुके। (तुम्हारा) वेणी गूँथने का ढंग देख लिया। मुश्किल से सुखाये हुए इन बालों से (पुनः) पानी चुचुहाने लगा।
नोट - नायिका की चोटी गूँथते समय प्रेमाधिक्य के कारण नायक के हाथ पसीजने लगे, जिससे सूखे हुए बाल पुनः भींग गये।