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मेरी ये आँखें किसने गढ़ीं?
शिल्पी कितना अविवेकी वह।
पुतलियों में अनबिंध मोतियों के पानी वाला
जिसने जड़ दिया नौलख हीरा!
और फिर उस पर कर दी गोमेद की पच्चीकारी,
किरणों की तरल चित्रकारी!
और उनमें भर दीं वसन्ती चाँदनियाँ,
पहाड़ी रागिनियाँ,
सपनों के मेले,
सावनी घटनाएँ,
और भिनसारी चहचहाहटें!
पर जन्म से आज तक
नाश, मरण व ध्वंस ही तो
इन आँखों से दिखाने थे!
तो फिर जरा कुछ सोचता तो सही वह भला आदमी-
काली पुतलियों और नयन-तारों की जगह
ढेले में-
रख दी होती-
बन्दूक की या सोडावाटर की बॉटल की
कोई रक्तरंजित गोली ही!
1962