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"भारतेन्दु / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

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07:07, 30 मई 2008 के समय का अवतरण

सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन
व्यंग्य बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन
अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन
फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन
हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो !
सुरपुरवासी हरिचंद जू, परम प्रबुद्ध प्रवीन हो !

दोनों हाथ उलीच संपदा बने दलीदर
सिंह, तुम्हारी चर्चा सुन चिढ़ते थे गीदर
धनिक वंश में जनम लिया, कुल कलुख धो गये
निज करनी-कथनी के बल भारतेन्दु हो गये
जो कुछ भी जब तुमने कहा, कहा बूझकर जानकर !
प्रियवर, जनमन के बने गये, जन-जन को गुरु मानकर !

बाहर निकले तोड़ दुर्ग दरबारीपन का
हुआ नहीं परिताप कभी फूँके कंचन का
राजा थे, बन गये रंक दुख बाँट जगत का
रत्तीभर भी मोह न था झूठी इज्जत का
चौंतीस साल की आयु पा, चिरजीवी तुम हो गये !
कर सदुपयोग धन-माल का, वर्ग-दोष निज धो गये !

अभिमानी के नगद दामाद, सुजन जन-प्यारे
दुष्टों को तो शर तुमने कस-कस के मारे
आफिसरों की नुक्ताचीनी करने वाले
जड़ न सका कोई भी तेरे मुँह पर ताले
तुम सत्य प्रकट करते रहे बिना झिझक बिना सोचना
हमने सीखी अब तक नहीं तुलित तीव्र आलोचना

सर्व-सधारन जनता थी आँखों का तारा
उच्चवर्ग तक सीमित था भारत न तुम्हारा
हिन्दी की है असली रीढ़ गँवारू बोली
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हम में घोली
बहुजन हित में ही दी लगा, तुमने निज प्रतिमा पखर !
हे सरल लोक साहित्य के निर्माता पण्डित प्रवर !

हे जनकवि सिरमौरसहज भाखा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे बाबू-भइया
तुम सी जिंदादिली कहाँ से वे लावेंगे
कहाँ तुम्हारी सूझ-बूझ वे सब पावेंगे
उनकी तो है बस एक रट : भाषा संस्कृतनिष्ठ हो !
तुम अनुक्रमणिका ही लिखो यदपि अति सुगम लिस्ट हो !

जिन पर तुम थूका करते थे साँझ-सकारे
उन्हें आजकल प्यार कर रहे प्रभु हमारे
भाव उन्हीं का, ढब उनका, उनकी ही बोली
दिल्ली के देवता, फिरंगिन के हमजोली
सुनना ही पन्द्रह साल तक अंग्रेजी बकवास है
तन भर अजाद हरिचंद जू, मन गोरन कौ दास है

कामनवेल्थी महाभँवर में फँसी बेचारी
बिलख रही है रह-रह भारतमाता प्यारी
यह अशोक का चक्र, इसे क्या देगा धोखा
एक-एक कर लेगी, सबका लेखा जोखा
जब व्यक्ति-व्यक्ति के चित्त से मिट जायेगी दीनता
माँ हुलसेगी खुलकर तभी लख अपनी स्वाधीनता
दूइ सेर कंकड़ पिसता फी मन पिसान में
घुस बइठा है कलिजुग राशन की दुकान में
लगती है कंट्रोल कभी, फिर खुल जाती है
कपड़ों पर से पहली कीमत धुल जाती है
बनिये तो यही मना रहे; विश्व युद्ध फिर से हो शुरू
फिर लखपति कोटीश्वर बने; कुछ चेहरे हों सुर्खरू !

गया यूनियन जैक, तिरंगे के दिन आये
चालाकों ने खद्दर के कपड़े बनवाये
टोप झुका टोपी की इज्जत बढ़ी सौगुनी
माल मारती नेतन की औलाद औगुनी
हम जैसे तुक्कड़ राति-दिन कलम रगड़ि मर जायँगे
तो भी शायद ही पेट भर अन्न कदाचित पायँगे

वही रंग है वही ढंग है वही चाल है
वही सूझ है वही समझ है वही चाल है
बुद्धिवाद पर दंडनीति शासन करती है
मूर्च्छित हैं हल बैल और भूखी धरती है
इस आजादी का क्या करें बिना भूमि के खेतिहर ?
हो असर भला किस बात का बिन बोनस मजदूर पर ?

लाटवाट का पता नहीं अब प्रेसिडेंट है
अपने ही बाबू भइया की गवर्मेंट है
चावल रुपये सेर, सेर ही भाजी भाजा
नगरी है अंधेर और चौपट है राजा
एक जोंक वर्ग को छोड़ कर सब पर स्याही छा रही
दुर्दशा देखकर देश की याद तुम्हारी आ रही

बड़े-बड़े गुनमंत धँस रहे प्रगट पंक में
महाशंख अब बदल गए हैं हड़ा शंख में
प्रजातंत्र में बुरा हाल है काम काज का
निकल रहा है रोज जनाजा रामराज का
प्रिय भारतेन्दु बाबू कहो, चुप रहते किस भाँति तुम
हैं चले जा रहे सूखते बिना खिले ही जब कुसुम ?

प्रभुपद पूजैं पहिरि-पहिरि जो उजली खादी
वे ही पा सकते हैं स्वतंत्रता की परसादी
हम तो भल्हू देस दसा के पीछे पागल
महँगी-बाढ़-महामारी मइया के छागल
है शहर जहल-दामुल सरिस निपट नरक सम गाँव है
अति कस्ट अन्न का वस्त्र का नहीं ठौर ना ठाँव है

पेट काट कर सूट-बूट की लाज निबाहैं
पिन से खोदैं दाँत, बचावैं कहीं निगाहैं
दिल दिमाग का सत निचोड़ कर होम कर रहे
पढ़ुआ बाबू दफ्तर में बेमौत मर रहे
अति महँगाई के कारण जीना जिन्हें हराम है
उनकी दुर्गति का क्या कहूँ जिनका मालिक राम है

संपादकगन बेबस करै गुमस्तागीरी
जदपि पेट भर खायँ न बस फाँकैं पनजीरी
बढ़ा-चढ़ा तउ अखबारन का कारोबार है
पाँति-पाँति में पूँजीवादी प्रचार है
क्या तुमने सोचा था कभी; काले-गोरे प्रेसपति
भोले पाठक समुदाय की हर लेंगे मति और गति

अंडा देती है सिनेट की छत पर चींटी
ढूह ईंट-पत्थर की, कह लो यूनिवर्सिटी
तिमिर-तोम से जूझ रहा मानव का पौधा
ज्ञान-दान भी आज बन गया कौरी सौदा
हे भारतेन्दु, तुम ही कहो, संकट को कैसे तरे ?
औसत दर्जे के बाप को कुछ न सूझता क्या करे ?

टके-टके बिक रहा जहाँ पर गीतकार है
बाकी सिरिफ सिनेमाघर में जहाँ प्यार है
कवि विरक्त बन फाँकि रहे चित्त चैतन चूरन
शिक्षक को भूखा रखता परमातम पूरन
अब वहाँ रोष है रंज है, जहाँ नेह सरिता बही
लो-प्रेम जोगनी आजकल अन्न-जोगनी हो रही

दीन दुखी मैं लिए चार प्रानिन की चिंता
बेबस सुनता महाकाल की धा धा धिनता
रीते हाथों से कैसे मैं भगति जताऊँ
किस प्रकार मैं अपने हिय का दरद बताऊँ
लो आज तुम्हारी याद में लेता हूँ मैं यह सपथ
अपने को बेचूँगा नहीं चाहे दुख झेलूँ अकथ

मैं न अकेला, कोटि-कोटि हैं मुझ जैसे तो
सबको ही अपना-अपना दुख है वैसे तो
पर दुनिया को नरक नहीं रहने देंगे हम
कर परास्त छलियों को, अमृत छीनेंगे हम
सब परेशान हैं, तंग हैं सभी आज नाराज हैं
हे भारतेन्दु तुम जान लो, विद्रोही सब आज हैं

जय फक्कड़ सिरताज, जयति हिंदी निर्माता !
जय कवि-कुल गुरू ! जयति जयति चेतना प्रदाता !
क्लेश और संघर्ष छोड़ दिखलावें क्या छवि—
दीन दुखी दुर्बल दरिद्र हम भारत के कवि !
जो बना निवेदन कर दिया, काँटे थे कुछ, शूल कुछ !
नीरस कवि ने अर्पित किए लो श्रद्धा के फूल कुछ !