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− | |रचनाकार=भगवत रावत
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− | [['''बैलगाड़ी''']]<br>
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− | एक दिन औंधे मुँह गिरेंगे<br>
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− | हवा में धुएँ की लकीर से उड़ते<br>
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− | मारक क्षमता के दंभ में फूले<br>
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− | सारे के सारे वायुयान<br><br>
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− | एक दिन अपने ही भार से डूबेंगे<br>
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− | अनाप-शनाप माल-असबाब से लदे फँसे<br>
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− | सारे के सारे समुद्री जहाज़<br><br>
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− | एक दिन अपनी ही चमक-दमक की <br>
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− | रफ्तार में परेशान सारे के सारे वाहनों के लिए<br>
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− | पृथ्वी पर जगह नहीं रह जायेगी<br><br>
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− | तब न जाने क्यों लगता है मुझे<br>
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− | अपनी स्वाभाविक गति से चलती हुई<br>
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− | पूरी विनम्रता से<br>
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− | सभ्यता के सारे पाप ढोती हुई<br>
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− | कहीं न कहीं<br>
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− | एक बैलगाड़ी ज़रूर नज़र आयेगी<br><br>
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− | सैकड़ों तेज रफ्तार वाहनों के बीच<br>
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− | जब कभी वह महानगरों की भीड़ में भी<br>
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− | अकेली अलमस्त चाल से चलती दिख जाती है<br>
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− | तो लगता है घर बचा हुआ है<br><br>
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− | लगता है एक वही तो है<br>
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− | हमारी गतियों का स्वास्तिक चिह्न<br>
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− | लगता है एक वही है जिस पर बैठा हुआ है<br>
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− | हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य<br>
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− | एक वही तो है जिसे खींच रहे हैं<br>
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− | मनुष्यता के पुराने भरोसेमंद साथी<br>
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− | दो बैल।
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