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"हिमालय ने पुकारा / गोपाल सिंह नेपाली" के अवतरणों में अंतर

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'''यह कविता अधूरी है। कृपया आपके पास हो तो इसे पूरा कर दें ।'''
 
 
 
शंकर की पुरी चीन ने सेना को उतारा
 
शंकर की पुरी चीन ने सेना को उतारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
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चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
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हो जाए पराधीन नहीं गंगा की धारा  
 
हो जाए पराधीन नहीं गंगा की धारा  
 
गंगा के किनारों को शिवालय ने पुकारा  
 
गंगा के किनारों को शिवालय ने पुकारा  
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हम भाई समझते जिसे दुनिया से उलझके,
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वो घेर रहा आज हमें बैरी समझ के।
  
हम भाई समझते जिसे दुनिया में उलझ के
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चोरी भी करे और करे बात गरज के
वह घेर रहा आज हमें बैरी समझ के
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धोखे से लुट गया भाई-भाई का नारा।
चोरी भी करे और करे बात गरज के  
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बर्फों मे पिघलने को चला लाल सितारा।
 
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बर्फों मे पिघलने को चला लाल सितारा
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चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
 
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
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ओ बात के बलवान अहिसा के पुजारी!
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बातों से नही आज तेरी आन की बारी।
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बैठा ही रहा तू तो गई लाज हमारी
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खा जाये नहीं जंग कहीं खड्ग दुधारा।
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है भूल हमारी हम छुरा क्यों न निकालें
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तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
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पड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
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समझा न सितारों ने घटाओं का इशारा।
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जागो कि बचाना है तुम्हें मानसरोवर
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रखना है छिपा कर तुम्हें कैलाश मनोहर,
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ले ले ना हमारी वो अमरनाथ धरोहर।
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रह जाय हिमाचल तो अचल भाग तुम्हारा
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कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगे
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लद्दाख की क्या बात है, बंजर भी न देंगे,
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आसाम हमारा है रे मरकर भी न देंगे।
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आजाद जो रहना है तो करो घर में गुजारा।
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भारत से तुम्हें प्यार तो सेना को हटा लो,
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भूटान की सरहद पे बुरी दृष्टि न डालो
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है लूटना सिक्किम को तो पीकिंग को सम्हालो,
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है चीन का लद्दाख, तो बीजिंग है हमारा।
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'''यह रचना हमें चन्द्र प्रकाश जी (chandraprakash2508@gmail.com) ने भेजी है। यह कविता उन्हेंझे उनकी माँ की एक पुरानी डायरी में हाथ से लिखी हुई मिली है। उसमें कवि का नाम भी गोपाल सिंह नेपाली ही लिखा हुआ है।'''
 
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12:14, 28 जून 2017 का अवतरण

शंकर की पुरी चीन ने सेना को उतारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
हो जाए पराधीन नहीं गंगा की धारा
गंगा के किनारों को शिवालय ने पुकारा
हम भाई समझते जिसे दुनिया से उलझके,
वो घेर रहा आज हमें बैरी समझ के।

चोरी भी करे और करे बात गरज के
धोखे से लुट गया भाई-भाई का नारा।
बर्फों मे पिघलने को चला लाल सितारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा
ओ बात के बलवान अहिसा के पुजारी!
बातों से नही आज तेरी आन की बारी।

बैठा ही रहा तू तो गई लाज हमारी
खा जाये नहीं जंग कहीं खड्ग दुधारा।
है भूल हमारी हम छुरा क्यों न निकालें
तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
पड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
समझा न सितारों ने घटाओं का इशारा।
जागो कि बचाना है तुम्हें मानसरोवर
रखना है छिपा कर तुम्हें कैलाश मनोहर,
ले ले ना हमारी वो अमरनाथ धरोहर।

रह जाय हिमाचल तो अचल भाग तुम्हारा
कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगे
लद्दाख की क्या बात है, बंजर भी न देंगे,
आसाम हमारा है रे मरकर भी न देंगे।
आजाद जो रहना है तो करो घर में गुजारा।
भारत से तुम्हें प्यार तो सेना को हटा लो,
भूटान की सरहद पे बुरी दृष्टि न डालो
है लूटना सिक्किम को तो पीकिंग को सम्हालो,
है चीन का लद्दाख, तो बीजिंग है हमारा।

यह रचना हमें चन्द्र प्रकाश जी (chandraprakash2508@gmail.com) ने भेजी है। यह कविता उन्हेंझे उनकी माँ की एक पुरानी डायरी में हाथ से लिखी हुई मिली है। उसमें कवि का नाम भी गोपाल सिंह नेपाली ही लिखा हुआ है।