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"कविता सुनाओ / रामनरेश पाठक" के अवतरणों में अंतर

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पपीहे की रतन बेसूद ही ठहरी उगे तब कंठ पर फोड़े,
 
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कि चकवी की तपन से रात भर नभ में उगे शोले,
 
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कविता सुनाओ
 
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बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!
 
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जोहती है बाट सोमर की जनानी रोज़ प्रतिपल,
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कुछ खेलते शिशु, किलकते घर, मचलते पर,
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बताओ सह सकोगे दर्द उनका,
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एक कोमल दर्द, मीठी सांस
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नीड़ में, वन में, सरित-सर में, कुटी में,
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झोपड़ी में, महल में साकार हो जाते,
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अरे, कुछ बाँध कर सपने सुहाने
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भरे उन चुम्बनों के फूल खिल-खिल
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गीत गाते अरुण अधरों पर,
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खेलते रुखड़े, मुलायम हाथ
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चिकनी और रूखी, शुष्क औ’
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है बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी
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सोती तब चुटीली याद की घाटी,
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पपीहा पी कहाँ की रट लगाता
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दूर बैठा विलपता है
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पेड़ के पत्ते बदलते मौन करवट
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औ कथा अपनी सुनाते,
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हवा की सांस भी धीमी,
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समंदर मौन हो जाते, 
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मौत की गहराईयों में गूँजती प्रतिपल अजानी
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ध्वनि प्रतिध्वनि और उसमें
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डूब जाती रात आशा ले,
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है इन्हीं का प्राण मेरे गीत में सजता
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भरी या खूब छूछी रात में
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रो गा सुनाता हूँ
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बताओ, सुन सकोगे?
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सह सकोगे चोट उनकी?
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बोल देते हो--
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भई, कविता सुनाओ,
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है बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी.
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रोती आँख, सोती पाँख, चूभता शूल, मिटता फूल,
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छुटता कूल, बहती धार, सूनी माँग, भूनी कोख,
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प्यासी बाहें विरहिन, छाँह बढ़ती आस, मिटटी राह,
 +
जानी थाह, मानी चाह, जगती प्यास, खोया प्राण,
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जागा चाँद अभिहित नाद, रिसती टीस, गाती पीर,
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रोती रात, चुभती सुबह,पिस्ता दर्द, आहें सर्द,
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गीले गान, भूखा पेट-गीत में पिरोये
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रोज़, आठों याम;
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जो मैं हर घडी ही गुनगुनाता हूँ,
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उठाओगे, कभी कुछ भार इनका?
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बोल देते हो--
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भई, कविता सुनाओ,
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है बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी.
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20:07, 7 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

कविता सुनाओ,
बोल देते हो,
बड़ी हिम्मत तुम्हारी,
बड़ी जुर्रत तुम्हारी
बोल देते हो - जरा कविता सुनाओ.

सुबह की ओस ने जो डूब पर अपना दरद खोया,
शलभ जो साधना की आंच में जल मौन हो सोया,
कुमुदिनी रात भर खिलकर सिसकती सो गयी भोरे,
पपीहे की रतन बेसूद ही ठहरी उगे तब कंठ पर फोड़े,
कि चकवी की तपन से रात भर नभ में उगे शोले,
भरा है गीत में मेरे, सुबह जो गुनगुनाता हूँ
इन्ही का दर्द, बोलो, सह सकोगे?
कविता सुनाओ
बोल देते हो,
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!

कोंपलों की फूटती हुई जवानी की
मधुर अंगड़ाईयां भी हैं
नील गहरी झील में सोना लुटाते
व्योम की परछाईयाँ भी हैं,
कोयल की चुटीली तान की
लाचारियाँ भी हैं,
क्षितिज की छोर से कढती हुई,
कुछ लोरियाँ भी है,

सुनो; इस मौन मन में घिर रहा है
रूप जिनका, खींचती बरबस ठभरती
गोरियाँ भी हैं
अरे, वह जल गयी सिगरेट
बनकर राख, अपने प्राण का संगीत,
सौरभ दे पवन को लुट गयी जो
है इन्हीं का प्राण मेरे गीत में
बिलकुल सुबह जो गुनगुनाता हूँ,
उसे तुम गा सकोगे-
बोल देते हो,
भई, कविता सुनाओ
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!

खेत में चूते पसीने की कई सौ बूँद गुनगुन गुनगुनाती,
रेत में बहते पसीने की कई सौ गूँज कुछ सपने सजाती
पुत रहा जो खून मीलों की मशीनों पर सलज वह मुस्कुराती
दफ्तरों में फाईलों पर फैलती को ऊब वह भी सहम जाती,
फावड़ों का, कलम का, उस फाल का,
रो-रो उभरती पेशियों का, तलहथी का,
घाव जो आकाश पर ही घुटन अपनी, पीब अपना,
पोतता है;
है उसी की तीस पुरनम गीत में मेरे
दुपहरी को सुनाता हूँ,
बताओ, सह सकोगे दर्द उनका
बोल देते हो,
भई, कविता सुनाओ
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!

मील का भोंपू बजे कब,
जोहती है बाट सोमर की जनानी रोज़ प्रतिपल,
सास की, जेठानियों-देवरानियों की, ननद की,
बात का सब दर्द पीती, ऊब पीती,
बाबुओं की बीवियां जो सिसकतीं हैं रोज़ भीतर,
धूल में, रन में, नदी के तीर पर,
कुछ खेलते शिशु, किलकते घर, मचलते पर,
है इन्हीं की आँख की आकुल प्रतीक्षा, सब्र
मेरे गीत में बसता
दुपहरी को सुनाता हूँ,
बताओ सह सकोगे दर्द उनका,
कविता सुनाओ
बोल देते हो,
बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी!

शाम को ही लाल सूरज डूब जाता
चोटियों के बीच में जब,
एक कोमल दर्द, मीठी सांस
चारों ओर देखो फैलती तब,
लें नयी कुछ शान बेंदी रजत की
आकाश पर फबती, किलकती,
ले नयी कुछ आस धूलि डगर की
वातास पर उडती चहकती,
गीत मिहनत के, मिलन के,
नीड़ में, वन में, सरित-सर में, कुटी में,
झोपड़ी में, महल में साकार हो जाते,
अरे, कुछ बाँध कर सपने सुहाने
नींद जाती बैठ पलकों पर
भरे उन चुम्बनों के फूल खिल-खिल
गीत गाते अरुण अधरों पर,
खेलते रुखड़े, मुलायम हाथ
चिकनी और रूखी, शुष्क औ’
उन सरस अलकों पर,
हजारों कंठ से कढ़ते,
हजारों रूप में बनते बिगड़ते स्वप्न
जाते रोज़ छिन प्रतिपल,
है उन्हीं की धड़कनों की सांस
मेरे गीत में,
जो रोज़ होते सांझ ही
मैं गुनगुनाता हूँ.
बताओ, सुन सकोगे, सह सकोगे?
बोल देते हो--
भई, कविता सुनाओ,
है बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी

ओस की चादर लपेटे रात को
जब प्रकृति सो जाती,
ओट कुहरे ही हुए तारे कि
सोती तब चुटीली याद की घाटी,
जागती है चांदनी बेबस भरमती,
फूँकती बांसी,
पपीहा पी कहाँ की रट लगाता
दूर बैठा विलपता है
पेड़ के पत्ते बदलते मौन करवट
औ कथा अपनी सुनाते,
हवा की सांस भी धीमी,
समंदर मौन हो जाते,

मौत की गहराईयों में गूँजती प्रतिपल अजानी
ध्वनि प्रतिध्वनि और उसमें
डूब जाती रात आशा ले,
है इन्हीं का प्राण मेरे गीत में सजता
भरी या खूब छूछी रात में
रो गा सुनाता हूँ
बताओ, सुन सकोगे?
सह सकोगे चोट उनकी?
बोल देते हो--
भई, कविता सुनाओ,
है बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी.

रोती आँख, सोती पाँख, चूभता शूल, मिटता फूल,
छुटता कूल, बहती धार, सूनी माँग, भूनी कोख,
प्यासी बाहें विरहिन, छाँह बढ़ती आस, मिटटी राह,
जानी थाह, मानी चाह, जगती प्यास, खोया प्राण,
जागा चाँद अभिहित नाद, रिसती टीस, गाती पीर,
रोती रात, चुभती सुबह,पिस्ता दर्द, आहें सर्द,
गीले गान, भूखा पेट-गीत में पिरोये
रोज़, आठों याम;
जो मैं हर घडी ही गुनगुनाता हूँ,
उठाओगे, कभी कुछ भार इनका?
बोल देते हो--
भई, कविता सुनाओ,
है बड़ी हिम्मत तुम्हारी, बड़ी जुर्रत तुम्हारी.