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"वो लड़कियाँ 1 / स्मिता सिन्हा" के अवतरणों में अंतर
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वक़्त तय करेगा
कि बसने से पहले
और कितनी बार उजड़ना है उसे
और कितनी बार उतरना है उसे
उस गहरी अंधेरी खाई में
जहाँ रोज़ उतरते हैं
सूरज, चाँद, सितारे
और कितनी बार उगना है उसे
उस पहाड़ की पीठ पर
जिसपर फिसलती सी चली जाती है
मुट्ठी भर पीली चटख धूप
उचाट सी छाँव की परत जमने से पहले
गहरी उदासी के बीच
चुपचाप गुजरता है उसका वक़्त
और तब भी
एक बारीक सी मुस्कान
चिपकी रहती है उसके चेहरे पर
जिसमें शेष रह जाते हैं
कुछ चमक
कुछ अकुलाहट
और वही बेचैन सा एक सवाल
बसंत आने में लगेंगे
और कितने साल...
(वक़्त ठिठका सा खड़ा रहता है वहीं...मूक, मौन)