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"जुगिनी रानी / कल्पना 'मनोरमा'" के अवतरणों में अंतर

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रात ने जब-जब पुकारा
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क्रुद्ध निहाई से चिंगारी,
थे कहाँ तुम
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छूट रही है
भोर में दीपक जलाने से
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जुगिनी रानी जीवन लोहा
मिला क्या ?
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कूट रही है।
  
जब किनारे पर गले
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नेह छिपा कर रख लेती, गाड़ी के नीचे
प्यासे फँसे थे
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दुलराती किलकारी अपनी, आँखें मींचे
मन मुताविक तंज कस
+
करती घन से वार बनाती, मुदरी छल्ला
धारे हँसे थे
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गठी –गठी काया तर, चिपका गीला पल्ला
शुष्क होंठों ने पुकारा
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खिले–खिले मुखड़े से  
थे कहाँ तुम
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लाली फूट रही है।
भीगने पर जल पिलाने से  
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मिला क्या ?
+
  
चैन की आगोश में भी
+
संकल्पों को बाँध गाँठ में, आग जलाती
रतजगे थे
+
सपने कूट –कूटकर फिर, तलवार बनाती
स्वप्न नगरी में घने
+
घास काटती दुक्खों की, धीरे मुस्काती
पहरे लगे थे
+
पूरे कुनवे का बोझा वह, स्वयं उठाती
नींद ने जब भी पुकारा
+
चपल निगाहों से वह
थे कहाँ तुम
+
खुशियाँ लूट रही है।
सो गए उनको सुलाने से
+
मिला क्या ?
+
  
भोग छप्पन थे मगर
+
दृष्टिकोण दिन से ले-लेकर, साँझ सजाती
ताले जड़े थे
+
निष्ठाओं की पायल से, झंकार लगाती
कौन किसको पूछता
+
चाम धौकनी धौंक, उगाती विरल उजाले
सब ही बड़े थे
+
और उगाती जीने के ,औजार निराले
भूख ने जब-जब पुकारा
+
अकड़ मुश्किलों की
थे कहाँ तुम
+
किरचों में टूट रही है।
खा चुके उनको खिलाने से
+
मिला क्या ?
+
 
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12:35, 9 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण

क्रुद्ध निहाई से चिंगारी,
छूट रही है
जुगिनी रानी जीवन लोहा
कूट रही है।

नेह छिपा कर रख लेती, गाड़ी के नीचे
दुलराती किलकारी अपनी, आँखें मींचे
करती घन से वार बनाती, मुदरी छल्ला
गठी –गठी काया तर, चिपका गीला पल्ला
खिले–खिले मुखड़े से
लाली फूट रही है।

संकल्पों को बाँध गाँठ में, आग जलाती
सपने कूट –कूटकर फिर, तलवार बनाती
घास काटती दुक्खों की, धीरे मुस्काती
पूरे कुनवे का बोझा वह, स्वयं उठाती
चपल निगाहों से वह
खुशियाँ लूट रही है।

दृष्टिकोण दिन से ले-लेकर, साँझ सजाती
निष्ठाओं की पायल से, झंकार लगाती
चाम धौकनी धौंक, उगाती विरल उजाले
और उगाती जीने के ,औजार निराले
अकड़ मुश्किलों की
किरचों में टूट रही है।