"पूर्वपीठिका / कुमार सौरभ" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
Kumar saurabh (चर्चा | योगदान) |
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मँझला कका से | मँझला कका से | ||
कई बार भिड़ चुके हैं बाबूजी | कई बार भिड़ चुके हैं बाबूजी | ||
− | रस्ता कैसे नहीं छोड़िएगा! | + | 'रस्ता कैसे नहीं छोड़िएगा!' |
बड़की काकी की बात | बड़की काकी की बात | ||
आग में देसी घी | आग में देसी घी | ||
− | + | 'न...न... आप काहे छोड़िएगा एको कड़ी।' | |
पड़ोस की दादी | पड़ोस की दादी | ||
तीनों घर पीती है चाय | तीनों घर पीती है चाय | ||
− | इहो होता है, रास्ता न छोड़े | + | 'इहो होता है, रास्ता न छोड़े |
− | नीड़; बिनु निकास कैसा! | + | नीड़; बिनु निकास कैसा!' |
उधर- | उधर- | ||
− | बाउ देखिए, जेठ-छोट का | + | 'बाउ देखिए, जेठ-छोट का |
थोड़ा भी लेहाज है | थोड़ा भी लेहाज है | ||
रस्ता के लिए ज़मीन छोड़िएगा तो | रस्ता के लिए ज़मीन छोड़िएगा तो | ||
− | आपके मकान का पूरा नक्शा ही न बिगड़ जाएगा! | + | आपके मकान का पूरा नक्शा ही न बिगड़ जाएगा!' |
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बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने | बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने | ||
− | पिता के बाद तुम लोगों को | + | 'पिता के बाद तुम लोगों को |
पाल-पोसकर बड़ा किए | पाल-पोसकर बड़ा किए | ||
पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए | पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए | ||
− | क्या-क्या नहीं सहना पड़ा... | + | क्या-क्या नहीं सहना पड़ा...' |
− | इसीलिए झंझटिया ज़मीन इधर छोड़कर | + | 'इसीलिए झंझटिया ज़मीन इधर छोड़कर |
− | चले गए पच्छिम भर... | + | चले गए पच्छिम भर...' |
− | मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं | + | मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं |
− | पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref> | + | 'पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref> |
− | फिरे काहे का बड़प्पन। | + | फिरे काहे का बड़प्पन।' |
फुसफुसाए बाबूजी | फुसफुसाए बाबूजी | ||
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सबसे बुरलेल<ref>बेवकूफ़</ref> दीनानाथ | सबसे बुरलेल<ref>बेवकूफ़</ref> दीनानाथ | ||
झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया! | झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया! | ||
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हवा में पसर गई है | हवा में पसर गई है | ||
असंतोष की धुआँइन गन्ध | असंतोष की धुआँइन गन्ध | ||
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फनककर बोल गए हैं बड़का कका- | फनककर बोल गए हैं बड़का कका- | ||
सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं | सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं | ||
− | तुम लोग लेना बाप का | + | तुम लोग लेना बाप का.. |
हम सभी पितिऔत<ref>चचेरे भाई</ref> | हम सभी पितिऔत<ref>चचेरे भाई</ref> |
02:15, 11 अक्टूबर 2017 का अवतरण
जवान फागुन में भी
आम की मँजरियाँ उदास हैं
कोयली का कुहकना कबसे नहीं सुना
मंझली काकी मुँह फुलाए बैठी है
बँटवारा है आज बासडीह<ref>निवास के लिए उपयुक्त भूखण्ड</ref> का।
मँझला कका से
कई बार भिड़ चुके हैं बाबूजी
'रस्ता कैसे नहीं छोड़िएगा!'
बड़की काकी की बात
आग में देसी घी
'न...न... आप काहे छोड़िएगा एको कड़ी।'
पड़ोस की दादी
तीनों घर पीती है चाय
'इहो होता है, रास्ता न छोड़े
नीड़; बिनु निकास कैसा!'
उधर-
'बाउ देखिए, जेठ-छोट का
थोड़ा भी लेहाज है
रस्ता के लिए ज़मीन छोड़िएगा तो
आपके मकान का पूरा नक्शा ही न बिगड़ जाएगा!'
बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने
'पिता के बाद तुम लोगों को
पाल-पोसकर बड़ा किए
पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए
क्या-क्या नहीं सहना पड़ा...'
'इसीलिए झंझटिया ज़मीन इधर छोड़कर
चले गए पच्छिम भर...'
मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं
'पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref>
फिरे काहे का बड़प्पन।'
फुसफुसाए बाबूजी
तमतमाई माँ सवेरे से उकसा रही है बाबूजी को
सबसे बुरलेल<ref>बेवकूफ़</ref> दीनानाथ
झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया!
हवा में पसर गई है
असंतोष की धुआँइन गन्ध
गरमा रहा है माहौल
फनककर बोल गए हैं बड़का कका-
सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं
तुम लोग लेना बाप का..
हम सभी पितिऔत<ref>चचेरे भाई</ref>
फाँड़ कस तैयार हैं।