भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गाओ दुख का महागीत/ ब्रजमोहन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
ओ जन-जन की पीड़ा मिलकर गाओ दुख का महागीत...
 
ओ जन-जन की पीड़ा मिलकर गाओ दुख का महागीत...
  
अम्बर ढहकर गिर जाए तुम्हारे पाँव में
+
        अम्बर ढहकर गिर जाए तुम्हारे पाँव में
जल जाए झुलसकर धूप तुम्हारी छाँव में
+
        जल जाए झुलसकर धूप तुम्हारी छाँव में
अपनी गरमी से भर जाए तुमको सूरज
+
        अपनी गरमी से भर जाए तुमको सूरज
  
 
जलने दो लाखों दिये दिलों के, रात्रि हो भयभीत...
 
जलने दो लाखों दिये दिलों के, रात्रि हो भयभीत...
  
लहराए उफ़नकर नदी रक्त की लहराए
+
        लहराए उफ़नकर नदी रक्त की लहराए
गाए श्रम के ओंठों पर जीवन मुस्काए
+
        गाए श्रम के ओंठों पर जीवन मुस्काए
उड़ने दो स्वर को आसमान छूने दो
+
        उड़ने दो स्वर को आसमान छूने दो
  
 
हर दिशा गूँजने लगे, खाए  पलटा अतीत...
 
हर दिशा गूँजने लगे, खाए  पलटा अतीत...
 
</poem>
 
</poem>

13:27, 16 अक्टूबर 2017 का अवतरण

ओ जन-जन की पीड़ा मिलकर गाओ दुख का महागीत...

        अम्बर ढहकर गिर जाए तुम्हारे पाँव में
        जल जाए झुलसकर धूप तुम्हारी छाँव में
        अपनी गरमी से भर जाए तुमको सूरज

जलने दो लाखों दिये दिलों के, रात्रि हो भयभीत...

        लहराए उफ़नकर नदी रक्त की लहराए
        गाए श्रम के ओंठों पर जीवन मुस्काए
        उड़ने दो स्वर को आसमान छूने दो

हर दिशा गूँजने लगे, खाए पलटा अतीत...