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खेद, कि इस बार भी नहीं मिलूंगी
पीठ पर वार खाये योद्धा की तरह
जिसकी वर्दी हो चटख निकोर
और हों तरकश में सारे तीर सलामत
नहीं मिलूंगी भग्न स्वप्न सी विफल
जो डरता हो नींद से
रात नयी वांछा न लाती हो जिसके लिए
कहो मुझे दुराग्रही
पर क्यों मिलूँ उस अस्त्र सी
जो साधता हो लक्ष्य कहीं/ खेलता हो किन्हीं और हाथों
जिसकी धार में जंग लग जाती हो बिन पिए प्रतिशोध रक्त
तुम्हें वह औरत बन कर तो कभी नहीं मिलूंगी
जो चोट खाने पर रोती
मारने पर मर जाती
छले जाते ही व्यर्थ हो जाती है
शायद मिलूँ उस शाख सी
जिसके घाव की जगह ही
नयी कोंपलें उग आती हैं
भूगर्भीय जल की तरह
नष्ट होते होते
बढ़ आऊँगी हर बारिश में
और उस दाने की तरह
जो पेट की आग न बुझा पाये
तो उग आता है अगली पीढ़ी
का अन्न बन कर
अब तय करना
किस भाषा में मिलोगे मुझसे
क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट
परिभाषाएँ तोड़ कर मिलूँगी।