"कविता की तलाश / रामनरेश पाठक" के अवतरणों में अंतर
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जब से आदमी ने मेरे हृदय को टुकड़े-टुकड़े किया और | जब से आदमी ने मेरे हृदय को टुकड़े-टुकड़े किया और | ||
उन टुकड़ों से अपने महल बनाए, सजाए | उन टुकड़ों से अपने महल बनाए, सजाए | ||
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तुरंत ढह जाने वाले पुल और | तुरंत ढह जाने वाले पुल और | ||
बह ढह जाने वाली सड़कें बनायीं | बह ढह जाने वाली सड़कें बनायीं |
22:28, 27 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
मैं काली-भूरी चट्टानों और घने जंगलों वाले
पहाड़ों के पास गया और एक कविता माँगी
पहाड़ों ने कहा--
जब से आदमी ने मेरे हृदय को टुकड़े-टुकड़े किया और
उन टुकड़ों से अपने महल बनाए, सजाए
रंग-बिरंगे महल---लीलाओं, मंत्रणाओं, यंत्रणाओं के महल
तुरंत ढह जाने वाले पुल और
बह ढह जाने वाली सड़कें बनायीं
तब से...तब...से कविता नहीं है
अब हम पहाड़ों के पास कविता नहीं है !
मैंने पहाड़ों से कहा--
अगली सदी ने मुझसे कविता माँगी है
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शों वाली कविता
गीतों से भरी कविता, संगीत में बसी रची कविता,
तुम यह कविता नहीं दोगे तो
मैं अगली सदी को क्या दूंगा ?
पहाड़ों ने कहा--
हमारी विवशता है,
हम तुम्हें या अगली सदी को कुछ नहीं दे सकते
सिवा अपने निरर्थक अस्तित्व के !
मैं नदियों, झरनों, झीलों, तालों, सरोवरों के पास गया
उनसे कुशल-मंगल पूछा और एक कविता माँगी
उन्होंने कहा--
कविता नहीं है उनके पास अब
थी कभी, अब नहीं है
जब से आदमी ने पानी में जहर घोलना और बहाना शुरू किया
तब से...तब...से कविता उनके पास नहीं थी
मैंने इनसे कहा--
अगली सदी ने मुझसे कविता माँगी है
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शों वाली कविता
गीतों से भरी कविता, संगीत में बसी रची कविता,
तुम यह कविता नहीं दोगे तो
मैं अगली सदी को क्या दूंगा ?
इन्होंने कहा--
हमारी विवशता है
हम तुम्हें या अगली सदी को कुछ नहीं दे सकते
सिवा अपने अस्तित्व में घुले जहर के
मैं आकाश के पास गया
उससे भी कुशल-मंगल पूछा और एक कविता माँगी
आकाश ने कहा--
कविता उसके पास नहीं है अब
थी कभी, अब नहीं है
जब से आदमी ने आकाश की छाती चीरने वाले
युद्धक विमान चलाए, तरह-तरह के बम-विस्फोट किए
सर्वनाशक प्रक्षेपात्रों का जखीरा बनाया
तब से...तब...से कविता नहीं है
मैंने आकाश से कहा--
अगली सदी ने मुझसे कविता माँगी है
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शों वाली कविता
गीतों से भरी कविता, संगीत में बसी रची कविता,
तुम यह कविता नहीं दोगे तो
मैं अगली सदी को क्या दूंगा ?
आकाश ने कहा--
मेरी विवशता है
मैं तुम्हें या अगली सदी को कुछ नहीं दे सकता
सिवा अपरिमेय प्रदूषण और कोलाहल के
और तब...तब...मैं
मेघों के पास गया, चिड़ियों और पेड़ों के पास गया
धरती और समुद्र के पास गया
ग्रहों, नक्षत्रों, नीहारिकाओं के पास गया
सूरज, चाँद, सितारों के पास गया
खेतों, खलिहानों पनघटों, झोपड़ियों, घरों
जनपदों, कस्बों, गाँवों, शहरों, नगरों, महानगरों के पास गया
खानो, कारखानों के पास गया
यानी जहाँ-जहाँ कविता हुआ करती थी
वहाँ...वहाँ... तमाम के पास गया
जीवन, प्रेम, मृत्यु, दिक् और काल के पास भी
इन सबों ने यही रोना रोया कि
आदमी ने ही कविता छीन ली लगातार और
तब से... तब से... कविता हमारे पास नहीं है
पहले थी कभी, अब नहीं है
मैंने इनसे बारंबार कहा--
अगली सदी ने मुझसे कविता माँगी है
रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शों वाली कविता
गीतों से भरी कविता, संगीत में बसी रची कविता,
तुम यह कविता नहीं दोगे तो
मैं अगली सदी को क्या दूंगा ?
इन्होंने कहा--
हमारी विवशता है, हम तुम्हें या अगली सदी को कुछ नहीं दे सकते
सिवा दैन्य, जड़ता, शून्य के
मैं तब से कविता की तलाश कर रहा हूं, थक गया हूं
और कविता माँगने वालों से कहता हूँ--
मेरी विवशता है
मैं तुम्हें या अगली सदी को
कविता नहीं दे सकता
संगीत नहीं दे सकता और
चित्र भी नहीं
सिवा आदिम जड़ता, महाविनाश, असंवेदना, काल कूट
और बर्बरता के