भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" |संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "द...)
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
  
 
[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग  /  भाग  7|<< पिछला भाग]]
 
[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग  /  भाग  7|<< पिछला भाग]]
 +
 +
 +
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
 +
 +
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है,
 +
 +
और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,
 +
 +
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं.
 +
 +
 +
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
 +
 +
रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है.
 +
 +
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,
 +
 +
गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?
 +
 +
 +
ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है.
 +
 +
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है.
 +
 +
देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,
 +
 +
रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं.
 +
 +
 +
सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
 +
 +
बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो.
 +
 +
आत्मदान के साथ जगज्जीवन का  ऋजु नाता है,
 +
 +
जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है
 +
 +
 +
दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
 +
 +
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,
 +
 +
व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
 +
 +
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं.
 +
 +
 +
जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
 +
 +
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,
 +
 +
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
 +
 +
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला.
 +
 +
 +
व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,
 +
 +
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को.
 +
 +
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,
 +
 +
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर.
 +
 +
 +
ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,
 +
 +
अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर.
 +
 +
सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
 +
 +
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की.
 +
 +
 +
हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,
 +
 +
अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला.
 +
 +
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,
 +
 +
उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली.
 +
 +
 +
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
 +
 +
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है.
 +
 +
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
 +
 +
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं
  
  
 
[[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग  /  भाग  2|अगला भाग >>]]
 
[[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग  /  भाग  2|अगला भाग >>]]

12:09, 26 जून 2008 का अवतरण

<< पिछला भाग


जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,

उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है,

और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,

अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं.


यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,

रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है.

किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,

गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?


ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है.

मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है.

देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,

रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं.


सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,

बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो.

आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,

जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है


दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,

रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,

व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,

पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं.


जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,

वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,

जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,

वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला.


व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,

जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को.

दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,

हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर.


ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,

अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर.

सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,

सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की.


हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,

अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला.

मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,

उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली.


दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,

एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है.

बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,

ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं


अगला भाग >>