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पहाड़ / कुमार मुकुल

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चोटी से देखता हूंहूँ
चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक
ढो ले जाएंगे पहाड़
जहां जहाँ वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे
बदल जाएंगे छतों में
आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है
अब पहाड़ों को तो चििड़याखानों चिड़ि़याख़ानों में
रखा नहीं जा सकता
तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़
और भी खूबूसरत ख़ूबसरत होते बादलों को छूते से
हो सकता है
नीले, सफ़ेद
या सुनहले हो जाएंजाएँ
द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह
और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए
वे हो जाएं जाएँ लुभावने
केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।
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