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टी.वी. खोलते ही
चैनलों पर बाबाओं के जलवे दिखाई पड़ने लगते हैं
तरह-तरह के संत-वेश धारण किये हुई तरह-तरह के बाबा
विविध भंगिमाओं के साथ भक्ति-गीत गाते हुए
कृतार्थ होने के लिए जुटी हुई भीड़ में से
कुछ जन नाचने लगते हैं मटक-मटक कर
गीतों की छौंक देकर प्रवचन चलते रहते हैं
मंत्र-मुग्ध सी सुनती है भीड़
और जब घर लौटती है
तब वही हो जाती है
जो संत-समागम में जाने से पूर्व होती है
वह आवाज़
जोमहज़ किताबें पढ़कर बनी हो
या किसी से माँगकर ली गई हो
‘तम’ ‘रज’ को कैसे बदल सकती है ‘सत’ में
दूसरों को बेहतर बनाने के लिए
सतत तपाना होता है स्वयं को
अनुभव और विवेक की आँच में
अरे चैनल तो अब बाज़ार हो गये हैं
जहाँ सजी हैं किसिम किसिम की
छोटी-बड़ी दुकानें...।
-7.2.2014