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16:45, 12 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
जब-जब गिरा मैं, अर्घ्य-जल बन कर गिरा,
जब-जब उठा तो दीप की लौ-सा उठा,
जब-जब बढ़ा, तो काल के रथ-सा बढ़ा,
जब-जब रुका, बन पाँव अंगद का रुका!
पथ से फिरा भी तो बहुत कुछ यों कि जैसे-
हाथ अर्जन के खिंचल गाण्डीव धनु की डोर;
प्रबल जिसकी प्रेरणा से तीर जाता-
तोड़ने आकाशचम्बी चोटियों के छोर!