भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"एक ‘ढ’ ग़ज़ल / साहिल परमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिल परमार |अनुवादक=साहिल परमार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
कोई हमारी आह को सुन क्या सकेगा | कोई हमारी आह को सुन क्या सकेगा | ||
− | बजतीं यहाँ चारों तरफ़ | + | बजतीं यहाँ चारों तरफ़ शहनाइयाँ हैं |
'''मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार''' | '''मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार''' | ||
</poem> | </poem> |
05:11, 29 अप्रैल 2018 का अवतरण
तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ हैं
यह चौदहवें अक्षर से सब रुस्वाइयाँ हैं
कैसा बिछाया जाल तू ने अय मनु कि
हम ही नहीं पापी यहाँ परछाइयाँ हैं
हम छोड़ ना सकते ना घुल-मिल भी सके हैं
दोनों तरफ़ महसूस उन्हें कठिनाइयाँ हैं
कोई हमारी आह को सुन क्या सकेगा
बजतीं यहाँ चारों तरफ़ शहनाइयाँ हैं
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार