भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"किस कदर खलने लगी हैं / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:48, 14 मई 2018 के समय का अवतरण

किस कदर खलने लगी हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।

ग़म अगर होते किसी को बाँट देता,
हथकड़ी होती सरासर काट देता,
हो गई होती अगर गुस्ताखियाँ तो-
स्वतः को अपने तईं में डाँट लेता।

सुबह से पीछे पड़ी है,
शाम की परछाइयाँ ये।
किस कदर खलने लगी हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।

बेखबर ये धूप से पानी-हवा से,
एक डरने लगा दूजे से सवा से,
क़िस्म है शायद नई बीमारियों की-
बढ़ रही है जो हकीमों की दवा से।

अहम् ने चारों तरफ से
खोद लीं, जो खाइयाँ ये।
किस कदर खलने लगीं हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।

चुटकियों में कर दिया ख़ारिज ज़माना,
रास अब आता नहीं गाना-बजाना।
रात-दिन समझा रही हैं बिला नागा-
किस तरह, किस हाल में फाँसी लगाना।

स्तत्व के भुतहे महल में
फड़फड़ाती झाइयाँ ये।
किस कदर खलने लगीं हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।