"विश्व-मानव गाँधी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर
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यह एक वर्ष भी तो पूरा होगा न अभी,
पर, भ्ुाला दिया हमने तेरी वाणी को भी!
यह कैसी सोने की कुर्सी, शाही गद्दी?
हम भूल गए कैसे तुमको इतनी जलदी!
आज़ाद हो गए हम, पर ढाँचा अभी वही!
नकली नक़्शे, खतियान और जालिया बही!
मिट्टी, गारा, दीवार वही, दालान वही!
डाकू, गँठकतरे, चोर और शैतान वही!
रह नहीं गया आलोक: दिवा का शुक्लभाव,
घन में छाया अवसाद: रात्रि का कृष्णभाव।
करता विष-वर्षण शासन का मणिधर भुजंग,
सन्तप्त भंग मानवता का है अंग-अंग।
फंुकार रही दानवत की ज्वाला प्रचंड,
करने जीवन को दण्ड-दण्ड में खण्ड-खण्ड।
बज रहा मौत का ढोल गगन के गुम्बद पर,
है डोल-डोल उठता, भूधर दुख से दब कर!
थम नहीं रहा है रुदन धरा की छाती में,
औंधी लेटी दुख की असूझ अधराती में।
इस अनल-दहन में शीतल हरिचन्दन जैसे,
जलती धरती में सजल-नयन सावन जैसे।
तुम चले, धर्म के सपने को तब ठेस लगी!
तुम चले, धर्म की रंगभूमि में भीति जगी!
आर्यत्व राष्ट्र की रीढ़ तोड़ने को दौड़ा,
आया फैलाए फ़ौलादी पंजा चौड़ा।
तुम नीलकंठ, पी गए गरल के कुम्भ भरे!
पर, पाशवता की ललकारों से नहीं डरे!
हो प्राप्त स्वर्ग, सम्पदा, रही तेरी न टेक,
तेरी तो एक कामना थी, भावना एक।
उनके सब दुख हों दूर कि जो हैं दीन दलित,
उनकी पीड़ाएँ टलें कि जो हैं हीन गलित।
हे संजीवन, धन्वन्तरि कायाकल्करण!
तुम चले गए हे शरणङक्र, हे क्षमा-श्रवण!
अब कहो कौन तुम-सा जो दुख की दवा करे?
जो जले घाव पर पंखा होकर हवा करे?
इस दुखियारे भारत की पीड़ा कौन हरे?
अपनी चिन्ता तज जग की चिन्ता कौन करे?
अब कहो दैन्य, दारिद्रî, द्वेष से कौन लड़े?
जो बने वज्र पशुता के गढ़ पर टूट पड़े?
हे मृत्यु´्जय बापू, बलिपथ के अनुगामी!
हे दिव्यभावधर, बुद्व-किरण, हे निष्कामी!
इस तिमिर-दुर्ग में जागे तेरे ही समान,
जागे फिर कोई जगमोहन तापस महानं
हाँ, जागे कोई, नई ज्योति गुरु बलिदानी,
जग-विप्लावक, करुणा की वाणी कल्याणी।
तो जागे काल कराल दमन सिंहासन पर!
तो जागे नर-कंकाल सृजन-वाहन बन कर!
ललकार उठे वाणी-वाणी में सत्य-कथन,
ज्यों रंण-प्रांगण में खंग-धार अंगार-वरण!
तो जागे जन-मन में नवयुग की अरुण किरण,
हांे शान्त द्वेष, उत्पीड़न और स्वार्थ, शोषण।
बापू, तेरी बलिदान-शिला पर आलोकित,
गढ़ मानवता का उठे अतुल महिमामंडित!
(रचना-काल: अगस्त, 1948। ‘सैनिक’, दीपावली विशेपोछ, 1948 में प्रकाशित।)