भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कजली / 41 / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:05, 21 मई 2018 के समय का अवतरण
विन्ध्याचली लय
घुमड़ि घुमड़ि घन गरजन लागे रामा।
हरि हरि सैयाँ बिना जियरा घबरावै रे हरी॥
काली रे कोइलिया कुहूँ-कुहूँ रट लाये रामा।
हरि हरि बिरहा बथाई मोरवा गावै रे हरी॥
पिया प्रेमघन अजहुँ न आये, आली सुधि बिसराये रामा।
हरि हरि सूनी सेजिया साँपिन-सी डँस जावै रे हरि॥76॥