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हम नहीं चाहते
जिन्हें अपने से दूर करना
वे चले जाते हैं
हमसे दूर, बहुत दूर
समन्दर पार
कौन चाहता है
हमारे बच्चे जायें
अलग बसे उनकी दुनिया
घर-बार
हम चाहते हैं
जिस धरती पर उगे हैं
वहीं वे वृक्ष बने
फले-फूले
वहाँ की हवा में फैल जाए
उनकी सुगन्ध
उनकी प्रतिभा, कौशल और श्रम से
बगिया लहलहाये, सुवासित हो
हमसे हो वे
और उनसे हो हमारा अस्तित्व
बने हमारा संसार
पर वे छिटक जाते हैं
पेड़ से टूटे पत्ते की तरह
दूर, बहुत दूर, समन्दर पार
बसती है उनकी दुनिया
हम रह जाते हैं इस पार
पहले साल में एक बार
फिर कभी-कभार
और अब तो बस हालचाल
सम्बंधों की नाजुक डोर को थामे
हमारे दिन कटते हैं टक-टकी बांधे
उनके इंतजार में
सांसें चल रही है इसी आस में
वे आयेंगे जिन्दा रहते नही
तो मरने पर ही सही
बस, जीते हैं इसी अहसास के साथ
अपने अकेलेपन में
कौन जाने, वे जीते हैं कैसे?