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"इलाहाबाद : 1970 / वीरेन डंगवाल" के अवतरणों में अंतर

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इस बित्ते भर की गुमटी में
 
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''अब वो बात कहाँ रही साहेब
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अब वो बात कहाँ रही साहेब
 
अब तो एक से एक आवे लगा है
 
अब तो एक से एक आवे लगा है
यूनवरसीटी में पढ़ने के लिए।“
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इस हिकारत में है चापलूसी का एक अद्वितीय ढंग
 
इस हिकारत में है चापलूसी का एक अद्वितीय ढंग
 
तजुरबे से ही आता है यह सब
 
तजुरबे से ही आता है यह सब
  
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अपना लड़का है एकराम
वह बहरहाल छठी से आगे नहीं गया।“
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इतना ज़रूर है कि कभी किसी छात्र-नेता तक से
 
इतना ज़रूर है कि कभी किसी छात्र-नेता तक से

14:53, 22 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण

एक

मैं ले जाता हूँ तुझे अपने साथ
जैसे किनारे को ले जाता है जल

एक उचक्कापन, एक अवसाद, एक शरारत,
एक डर, एक क्षोभ, एक फिरकी, एक पिचका हुआ टोप
चूतड़ों पर एक ज़बरदस्त लात
खुरचना बन्द दरवाज़े को पंजों की दीनता से

विचित्र पहेली है जीवन

जहाँ के हो चुके हैं समझा किए
तौलिया बिछाकर इत्मीनान की साँस छोड़ते हुए
वहीं से कर दिए गए अपरिहार्य बाहर

दो

भरभरा कर गिरी पचासों शहतीरें
उनके नीचे एक आदमी है जो अभी ज़िन्दा है
आँखों की पुतलियाँ चढ़ गई हैं
होंठ की कोर से बह रही है ख़ून की एक लकीर
मगर अभी ज़िन्दा है वह आदमी
सहस्रों प्रकाश वर्ष दूर झिलमिलाता है जो स्वप्न
उस तक पहुँचने के लिए
एक रथ है उसकी नींद

तीन

अँधेरे में माचिस टटोलते हुए,
उँगलियों को मिलते हैं
कई परिचित चीज़ों के अपरिचित स्पर्श
देखते-बूझते भी
शाम को नहीं भरा था स्टोव में मिट्टी का तेल

आलस भाग
प्यार रह
नौकरी मिल
पत्नी हो
बना दे थोड़ी-सी खिचड़ी और चटनी

अकेलेपन
मत चिपचिपा गुदड़ी तकिए पे धरे गालों पर
मई के पसीने की तरह।

चार

एक व्यक्तिगत उदासी
दो चप्पलों की घिस-घिस
तीन कुत्तों का भौंकना
ऐसे ही बीत गया, यह भी, पूरा दिन

क्या ही अच्छा हो अगर ताला खोलते ही दीखें
चार-पाँच खत
कमरे के अँधेरे को दीप्त करते

पाँच

शुरू से मैंने पढ़ा
ग़लतियाँ इतनी थीं कि उन्हें
सुधारना मुमकिन न था
एक ग़रीब छापेख़ाने में छपी किताब था जीवन
ताक़त के इलाज इतने
कि बन गए थे रोग



कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना
जैसे खा लिया जाना
अमरूद का सौभाग्य है
हाँ, स्वाद भी अच्छा है और तासीर में भी
शायद कुछ और भी याद आ जाए
जैसे किसी और शहर में रहता कोई और

सात

धीरे-धीरे चुक जाएगा जब असफलता का स्वाद
तब आएगी ईर्ष्या

याद नहीं रहेगा रबड़ की चप्पल में
बार-बार निकलने वाली बद्दी का बैठाना
याद नहीं रहेगा साबुत अमरूद का टिर्रापन
हताश हृदय को कँपाएगी तेजस्वी प्रखरता
बदज़ायका लगेगी अच्छाई
शर्मिन्दगी होगी हृदय के कूप का मण्डूक
गुना था जिनके साथ जीवन का मर्म
वे ही दोस्त-अहबाब मिलेंगे अर्धपरिचितों की तरह

सफल होते ही बिला जाएगा
खोने का दुख और पाने का उल्लास

तब आएगी ईर्ष्या
लालच का बैण्ड-बाजा बजाती

आठ

छूटते हुए छोकड़ेपन का ग़म, कड़की, एक नियामत है दोसा
काफ़ी हाउस में थे कुछ लघु मानव, कुछ महामानव
दो चे ग्वेवारा
मनुष्य था मेरे साथ रमेन्द्र
उसके पास थे साढ़े चार रुपए

नौ

ग़फ्फ़ार
चेहरे पर एक वाचाल मुस्कान
कत्थे के चमकदार लोटे पर जलतरंग !
तजुरबे से ही आता है यह सब

कुरता सफ़ेद ही रहेगा अति-नीलग्रस्त झका-झक्क
घुटने तो ख़ैर, दुखेंगे ही
सोलह घण्टे जब लगातार बैठना होगा
इस बित्ते भर की गुमटी में

— अब वो बात कहाँ रही साहेब
अब तो एक से एक आवे लगा है
यूनवरसीटी में पढ़ने के लिए।

इस हिकारत में है चापलूसी का एक अद्वितीय ढंग
तजुरबे से ही आता है यह सब

— अपना लड़का है एकराम
वह बहरहाल छठी से आगे नहीं गया।

इतना ज़रूर है कि कभी किसी छात्र-नेता तक से
गाली नहीं खाई ग़फ्फ़ार ने
हालाँकि उधार भी न दिया
किसी कमज़ोर आसामी को।

(1982)