"बहुत हो चुका / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 36: | पंक्ति 36: | ||
'''माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।''' | '''माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।''' | ||
7 | 7 | ||
− | '''भूले ही नहीं जब तो कैसे तुम्हारी याद आती।''' | + | '''भूले ही नहीं जब ,तो कैसे तुम्हारी याद आती।''' |
− | '''सूखे नहीं हैं अश्क कैसे हरपल हमको रुलाती।''' | + | '''सूखे नहीं हैं अश्क ,कैसे हरपल हमको रुलाती।''' |
− | '''आज वक़्त ने सजाए मौत जीते जी दी है हमें''' | + | '''आज वक़्त ने सजाए-मौत जीते जी दी है हमें''' |
− | '''चले भी आओ मेरे प्राण रुह तुमको ही बुलाती।''' | + | '''चले भी आओ मेरे प्राण ,रुह तुमको ही बुलाती।''' |
8 | 8 | ||
जितना उसने था दुत्कारा, उतना पास तुम्हारे आया। | जितना उसने था दुत्कारा, उतना पास तुम्हारे आया। | ||
− | आरोपों | + | आरोपों की झड़ी लगाकर ,पास तुम्हारे ही पहुँचाया। |
− | मन था जो गंगा सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा | + | मन था जो गंगा -सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा |
कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया। | कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया। | ||
-0- | -0- | ||
<poem> | <poem> |
22:24, 9 अप्रैल 2019 का अवतरण
1
आग पर तुम हर एक किताब रखना
आँसुओं का भी सदा हिसाब रखना।
जलाकरके पन्ने जलना तुम्हें भी
याद इतना पाठ अब जनाब रखना।
2
विषधरों के बीच बीती है ज़िन्दगी
टूटे घट -जैसी रीती है ज़िन्दगी
घाव हुए हज़ारों और हम अकेले
बोलो फिर कैसे ये सीती ज़िन्दगी।
3
उम्मीदों की बगिया मुरझाने लगी है
किस्मत भी अब तो आग लगाने लगी है
जीने की इच्छा अब मन में नहीं बाकी
मौत आकरके पंजा लड़ाने लगी है।
4
दग़ा देने वाले सवाल पूछते हैं
पिलाकरके ज़हर फिर हाल पूछते हैं
चन्दन -सी ज़िन्दगी सब राख कर डाली
कितना हुआ हमको मलाल पूछते हैं।
5
जग की सब नफ़रत मैं ले लूँ, तुमको केवल प्यार मिले।
हम तो पतझर के वासी हैं,तुमको सदा बहार मिले।
सफ़र हुआ अपना तो पूरा,चलते-चलते शाम हुई
तुझको हर दिन सुबह मिले,नील गगन-सा प्यार मिले।
6
खुद से रही है शिकायत हमारी
किसी से रही न अदावत हमारी
बहुत हो चुका अब चलना पड़ेगा
माफ़ करना तुम हर आदत हमारी।
7
भूले ही नहीं जब ,तो कैसे तुम्हारी याद आती।
सूखे नहीं हैं अश्क ,कैसे हरपल हमको रुलाती।
आज वक़्त ने सजाए-मौत जीते जी दी है हमें
चले भी आओ मेरे प्राण ,रुह तुमको ही बुलाती।
8
जितना उसने था दुत्कारा, उतना पास तुम्हारे आया।
आरोपों की झड़ी लगाकर ,पास तुम्हारे ही पहुँचाया।
मन था जो गंगा -सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा
कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया।
-0-