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"मैं और तुम / सुनीता शानू" के अवतरणों में अंतर
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बँध गये हैं एक अदृश्य बंधन में
मैं
और तुम
कितने शान्त हो
तुम
समन्दर की तरह...
और मै
शीतल, चँचल, नदी सी...
बहे जा रही हूँ
अनवरत...
और तुम
मेरी प्रतीक्षा में खड़े
अपनी विशाल बाँहें फैलाये
किन्तु
मेरे आते ही
तुम्हारी शांत
भावनायें
लेने लगती हैं हिलोरें
लहरों की तरह
और
मेरे समर्पण पर
हो जाते हो शान्त
तुम भी
समन्दर की तरह
मै जानती हूँ...
’मै’
अब तक मै ही हूँ
लेकिन...
जिस दिन
तुमसे मिल जाऊँगी
तुम हो जाऊँगी