{{KKRachna
|रचनाकार=सुभाष राय
|संग्रह= सलीब पर सच / सुभाष राय
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं एक चेहरा बनाना चाहता हूंहूँ
पर अधूरा रह जाता है बार-बार
न जाने क्यों बनता ही नहीं
मेरे पास हर तरह के रंग रँग हैंलाल, पीले, नीले, चटखसफेद सफ़ेद और काले भीमेरी तूलिका में भी कोई खराबी ख़राबी नहीं हैइसी से मैंने अपनी तस्वीर बनायी बनाई हैबिल्कुल साफसाफ़-सुथरी, मैं पूरा दिखता हूं हूँ उसमेंजो भी मुझे पहचानता है, तस्वीर भी पहचान सकता हैउसकी आँखों में झांककरझाँककर पढ़ सकता है मेरा मनइसी तूलिका से मैंने कईऔर भी तस्वीरें बनायी बनाई हैं
सब सही उतरी हैं कैनवस पर
मैंने एक मजदूर मज़दूर की तस्वीर बनायीबनाईउसके चेहरे पर अभाव और भूखसाफसाफ़-साफ साफ़ झलकती हैउसे कोई भी देखे तो लगता हैवह तस्वीर से बाहर निकल करकुछ बोल पड़ेगा, बता देगा कि उसकी बीवी
किस तरह बीमार हुई और चल बसी
उसका बच्चा क्यों पढ़ नहीं सका
वह स्वयं तस्वीर की तरहजड़ होकर क्यों रह गया है
मैंने एक सैनिक की तस्वीर बनायीबनाई
वह अपनी पूरी लाचारी के साथ
मेरे रंगों रँगों से निकल करनिकलकर कैनवस पर आ गयावहां घना जंगल हैवहां दो देशों की सीमाएं मिलती हैंवह घने जँगल में सीमा के पास खड़ा थावहां वहाँ आपस में गुत्थमगुत्था होते लोग हैं
एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा
सैनिक के पास बंदूक बन्दूक है, उसे लड़ने का हुक्म हुक़्म भी हैपर वह तब तक गोलियांनहीं चला सकताजब तक उसकी जान खतरे ख़तरे में न हो
तस्वीर देखने पर लगता है
वह कभी भी पागल हो सकता है
मैंने एक बच्चे कीतस्वीर बनायीवह हंस रहा थाबनाईवह मेरी तूलिका औररंग रँग से खेलना चाहता था
वह कैनवस पर आ ही नहीं रहा था
वह मुझे चकमा देकरनिकल जाना चाहता थाकभी रंगीन रँगीन गुब्बारा उठाता और
उसे फोड़कर खिलखिला पड़ता
कभी बैट उठा लेता औरभाग जाना चाहता भागता मैदान की ओरकभी रोनी-सी सूरत बनाकरमां माँ को आवाज आवाज़ देताभविष्य को ठेंगे पर रखेकभी चिल्लाता, कभीकभी सरपट दौड़ लगा देता
कभी मेरा चश्मा उतार लेता
तो कभी मेरी पीठ सवार हो जाता
वह तस्वीर में है पर नहीं है
मैंने एक आधुनिक संत सन्त की तस्वीर बनायी
मैं नहीं जानता कैसे वह पूरा होते होते
शैतान जैसी दिखने लगी
उसके चेहरे पर लालचहै, क्रूरतानिर्ममता, धूर्तता सब कुछदिखायी पड़ रही हैमैं उसे देख बुरी तरह डर गया हूंहूँलोगों को सावधान करना चाहता हूंहूँ
पर कोई मेरी बात सुनता ही नहीं
लोग आते है, झुककर माथा नवाते है
कीर्तन करने लगते हैं,गाते-गाते होश खो बैठते हैंऔर चीखते, चिल्लातेसब हार कर इस तरह लौटते हैंकि तौटते लौटते ही नहीं कभी
मेरी तूलिका ने हमेशा मेरा साथ दिया
मेरे रंग रँग कभी झूठे नहीं निकलेपर मैं हैरान हूंहूँ, इस बारसिर्फ सिर्फ़ एक चेहरे की बात हैमैं बनाना चाहता हूंहूँ एक ऐसा चेहराजिसे मैं मुल्क कह सकूंसकूँजिसमें सभी खुद ख़ुद को निहार सकें
पर बनता ही नहीं
कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है
कभी पूरा काला हो जाता है
मुझे शक है कि मुल्क का चेहराहै भी या नहीं
</poem>