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भले ही मुश्किलों में हैं, कहा हम मान लेते हैं।
तिरा फिर अपने सर दुनिया! नया अहसान लेते हैं।
न सुनता कोई जब अपनी कही, दुनिया की राहों में,
क़सम खाने को हम भी ‘मीर का दीवान’ लेते हैं।
 
वफ़ादारी में क़स्में खाने की आदत नहीं होती,
मगर हर रोज़ झूठी क़स्में क्यों इन्सान लेते हैं।
 
नहीं लगती कोई देरी हमें हाज़िर जवाबी में,
वो दुश्मन हों कि कोई दोस्त हम पहचान लेते हैं।
 
ग़ज़ल कहने में माहिर हो चुके तेरे करम से हम,
ग़ज़लकारों तब ही ‘नूर’ सा उन्वान लेते हैं।
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