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<poem>
सबने उजला तन देखा है।
किसने, किसका मन देखा है?
किसको आई प्रीत निभानी?
सारा जग निर्धन देखा है।
 
कब तुमने आँसू टपका कर,
रोते नील गगन देखा है?
 
चितवन की भाषा जो जाने,
ऐसा अपनापन देखा है।
 
गुल तुमने हर रोज़ खिलाए,
हमने बस गुलशन देखा है।
 
नाच उठी थी ‘राधा’ जिसमें,
किसने वो मधुवन देखा है?
 
जो न किसी का दोष दिखाए,
हमने वो दरपन देखा है।
 
बिन बरसे ही बीत गया जो,
मैंने वो सावन देखा है।
 
उन आँखों में डुबकी लेकर,
उनका गहरापन देखा है।
 
पहचाने जो पीर पराई,
कब वो अपनापन देखा है।
 
‘नूर’ नहाया गंगा में जो,
पापी भी पावन देखा है।
</poem>
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