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ग़ज़ब है ये नदी अब भी रुलाती है।
बहे क्या-क्या, जब इसमें बाढ़ आती है।
इसे जो मानते हैं, पूजते अब भी,
उन्हीं को ये ज़ियादा ही सताती है।
 
पुरानी ‘राम-केवट’ की कथाओं को,
बड़ी श्रद्धा से ‘सरयू’ अब भी गाती है।
 
नहीं मानेगी जनता बहस भी कर लो,
नदी पर जो नये ‘बंधे’ बनाती है।
 
नदी की रेत में पैदा जो होती हैं,
हमें उन सब्ज़ियों की याद आती है।
 
सहारा दे नदी जो आम लोगों को,
उसी की तो कथा नानी सुनाती है।
 
पहाड़ों से निकलती पतली-सी धारा,
वो आगे ‘नूर’ चल गंगा कहाती है।
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