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|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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<poem>
अगर मैं आम्र-बौर का ठीक-ठीक
संकेत नहीं समझ पायी
तो भी इस तरह खिन्न मत हो
प्रिय मेरे!
अगर कितनी बार जब तुम ने अर्द्धोन्मीलित कमल भेजातो मैं आम्रतुरत समझ गयी कि तुमने मुझे संझा बिरियाँ बुलाया हैकितनी बार जब तुम ने अँजुरी भर-बौर का ठीक-ठीक <br>भर बेले के फूल भेजेसंकेत नहीं तो मैं समझ पायी <br>गयी कि तुम्हारी अंजुरियों नेकिसे याद किया हैकितनी बार जब तुम ने अगस्त्य के दोउजले कटावदार फूल भेजेतो भी इस तरह खिन्न मत हो<br> मैं समझ गई किप्रिय तुम फिर मेरे! <br><br>उजले कटावदार पाँवों में- तीसरे पहर - टीले के पास वालेसहकार की घनी छाँव मेंबैठ कर महावर लगाना चाहते हो।
कितनी बार जब तुम ने अर्द्धोन्मीलित कमल भेजा <br>तो मैं तुरत समझ गयी कि तुमने मुझे संझा बिरियाँ बुलाया है <br>कितनी बार जब तुम ने अँजुरी भर-भर बेले आज अगर आम के फूल भेजे <br>बौर का संकेत नहीं भीतो मैं समझ गयी कि तुम्हारी अंजुरियों ने <br>किसे याद किया है <br>कितनी बार जब तुम ने अगस्त्य के दो <br>उजले कटावदार फूल भेजे <br>पायी तो मैं समझ गई कि <br>तुम फिर मेरे उजले कटावदार पाँवों में <br>- तीसरे पहर - टीले के पास वाले <br>सहकार की घनी छाँव में <br>बैठ कर महावर लगाना चाहते हो। <br><br>क्या इतना बड़ा मान ठान लोगे?
आज अगर आम के बौर का संकेत नहीं भी <br>मैं मानती हूँसमझ पायी कि तुम ने अनेक बार कहा है:“राधन्! तुम्हारी शोख चंचल विचुम्बित पलकें तो क्या इतना बड़ा मान ठान लोगे? <br><br>पगडण्डियाँ मात्र हैं:जो मुझे तुम तक पहुँचा कर रीत जाती हैं।”
मैं मानती हूँ <br>कि तुम ने अनेक कितनी बार कहा है: <br>“राधन्! ये पतले मृणाल सी तुम्हारी शोख चंचल विचुम्बित पलकें तो <br>गोरी अनावृत बाँहेंपगडण्डियाँ मात्र हैं: <br>जो मुझे तुम तक पहुँचा कर रीत जाती हैं।” <br><br>
तुम ने कितनी बार कहा है: <br>“राधन्“सुनो! ये पतले मृणाल सी तुम्हारे अधर, तुम्हारी पलकें, तुम्हारी गोरी अनावृत बाँहें <br>, तुम्हारेचरण, तुम्हारे अंग-प्रत्यंग, तुम्हारी सारी चम्पकवर्णी देहपगडण्डियाँ मात्र पगडण्डियाँ हैं: जो मुझे तुम तक पहुँचा कर <br>चरम साक्षात्कार के क्षणों में रहती ही नहीं -रीत-रीत जाती हैं।” <br><br>हैं!”
तुम ने हाँ चन्दन,तुम्हारे शिथिल आलिंगन मेंमैंने कितनी बार कहा इन सबको रीतता हुआ पाया है:<br> “सुनो! तुम्हारे अधर, तुम्हारी पलकें, तुम्हारी बाँहें, तुम्हारे <br>मुझे ऐसा लगा हैचरण, तुम्हारे अंग-प्रत्यंग, तुम्हारी सारी चम्पकवर्णी देह <br>जैसे किसी ने सहसा इस जिस्म के बोझ सेमात्र पगडण्डियाँ हैं जो <br>मुझे मुक्त कर दिया हैचरम साक्षात्कार के क्षणों में रहती ही और इस समय मैं शरीर नहीं हूँ…मैं मात्र एक सुगन्ध हूँ - <br>रीतआधी रात में महकने वाले इन रजनीगन्धा के फूलों कीप्रगाढ़, मधुर गन्ध -रीत जाती हैं!” <br><br>आकारहीन, वर्णहीन, रूपहीन…
हाँ चन्दन, <br>मुझे नित नये शिल्प मे ढालने वाले !तुम्हारे शिथिल आलिंगन में <br>मेरे उलझे रूखे चन्दनवासित केशों मेमैंने कितनी बार इन सबको रीतता हुआ पाया है <br>पतली उजली चुनौती देती हुई मांगमुझे ऐसा लगा है <br>क्या वह आखिरी पगडण्डी थी जिसे तुम रिता देना चाहते थेजैसे किसी ने सहसा इस जिस्म के बोझ तरहउसे आम्र मंजरी से <br>मुझे मुक्त कर दिया है <br>और इस समय मैं शरीर नहीं हूँ… <br>मैं मात्र एक सुगन्ध हूँ - <br>आधी रात में महकने वाले इन रजनीगन्धा के फूलों की <br>प्रगाढ़, मधुर गन्ध - <br>आकारहीन, वर्णहीन, रूपहीन…<br><br>भर भरकर;
मुझे नित नये शिल्प मे ढालने वाले ! <br>मैं क्यों भूल गयी थी किमेरे उलझे रूखे चन्दनवासित केशों मे <br>लीलाबन्धु, मेरे सहज मित्र की तो पद्धति ही यह हैपतली उजली चुनौती देती हुई मांग <br>क्या कि वह आखिरी पगडण्डी थी जिसे तुम रिता देना चाहते थे <br>भी रिक्त करना चाहता हैइस तरह <br>उसे सम्पूर्णता से भर देता है ।यह मेरी मांग क्या मेरे-तुम्हारे बीच कीअन्तिम पार्थक्य रेखा थी,क्या इसीलिए तुमने उसे आम्र मंजरी मंजरियों से भर भरकर;<br><br>-भर दिया कि वहभर कर भी ताजी, क्वाँरी, रीती छूट जाए!
तुम्हारे इस अत्यन्त रहस्यमय संकेत कोठीक-ठीक न समझ मैं क्यों भूल गयी थी कि <br>उसका लौकिक अर्थ ले बैठीमेरे लीलाबन्धुतो मैं क्या करूँ, मेरे सहज मित्र की तुम्हें तो पद्धति ही यह मालूम है <br>कि वह जिसे भी रिक्त करना चाहता है <br>मैं वही बावली लड़की हूँ नउसे सम्पूर्णता से भर देता जो पानी भरने जाती है । <br>यह मेरी मांग क्या मेरे-तुम्हारे बीच तो भरे घड़े मेंअपनी चंचल आँखों की<br> छाया देख करअन्तिम पार्थक्य रेखा थी,<br>उन्हें कुलेल करती चटुल मछलियाँ समझ करक्या इसीलिए तुमने उसे आम्र मंजरियों से<br>भरबार-भर दिया कि वह<br>भर कर भी ताजी, क्वाँरी, रीती छूट जाएबार सारा पानी ढलका देती है!<br><br>
तुम्हारे इस अत्यन्त रहस्यमय संकेत सुनो मेरे मित्रयह जो मुझ में, इसे, उसे, तुम्हें, अपने को<br>-ठीककभी-ठीक कभी न समझ मैं उसका लौकिक अर्थ ले बैठी<br>तो मैं क्या करूँ,<br>तुम्हें तो मालूम पाने की नादानी है<br>कि मैं वही बावली लड़की हूँ <br>जो पानी भरने जाती है<br>इसे मत रोकोतो भरे घड़े में<br>होने दो:अपनी चंचल आँखों की छाया देख वह भी एक दिन हो-हो कर<br>उन्हें कुलेल करती चटुल मछलियाँ समझ कर<br>बार-बार सारा पानी ढलका देती है!<br><br>रीत जायेगी
सुनो मेरे मित्र<br>यह जो मुझ में, इसे, उसे, तुम्हें, अपने को -<br>कभी-कभी और मान लो समझ पाने की नादानी है न<br>भी रीतेइसे मत रोको<br>होने दो:<br>वह भी एक दिन हो-हो कर<br>और मैं ऐसी ही बनी रहूँ तोरीत जायेगी<br><br>तो क्या?
और मान लो न भी रीते<br>मेरे हर बावलेपन परऔर कभी खिन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँस करतुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस करबेसुध कर देते होउस सुख को मैं ऐसी ही बनी रहूँ तो<br>छोड़ूँ क्यों?करूँगी!बार-बार नादानी करूँगीतुम्हारी मुँहलगी, जिद्दी, नादान मित्र भी तो क्या?<br><br>हूँ न!
मेरे हर बावलेपन पर<br>कभी खिन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँस कर<br>आज इस निभृत एकांत मेंतुम जो प्यार से अपनी बाँहों दूर पड़ी मैं:और इस प्रगाढ़ अँधकार में कस कर<br>बेसुध कर देते हो<br>तुम्हारे चंदन कसाव के बिना मेरी देहलता केबड़े-बड़े गुलाब धीरे-धीरे टीस रहे हैंऔर दर्द उस सुख को मैं छोड़ूँ क्यों?<br>लिपि का अर्थ खोल रहा हैकरूँगी!<br>जो तुम ने आम्र मंजरियों के अक्षरों मेंबार-बार नादानी करूँगी<br>तुम्हारी मुँहलगी, जिद्दी, नादान मित्र भी तो हूँ न!<br><br>मेरी माँग पर लिख दी थी
आज इस निभृत एकांत में<br>आम के बौर की महक तुर्श होती है-तुम से दूर पड़ी मैं:<br>ने अक्सर मुझमें डूब-डूब कर कहा हैऔर इस प्रगाढ़ अँधकार में<br>तुम्हारे चंदन कसाव के बिना कि वह मेरी देहलता के<br>बड़े-बड़े गुलाब धीरे-धीरे टीस रहे हैं<br>और दर्द उस लिपि का अर्थ खोल रहा तुर्शी है<br>जो जिसे तुम ने आम्र मंजरियों के अक्षरों मेरे व्यक्तित्व में<br>मेरी माँग पर लिख दी थी<br><br>विशेष रूप से प्यार करते हो!
आम के का वह पहला बौर की महक तुर्श होती है-<br>मौसम का पहला बौर थाअछूता, ताजा सर्वप्रथम!मैंने कितनी बार तुम ने अक्सर मुझमें में डूब-डूब कर कहा है<br>कि वह मेरी तुर्शी मेरे प्राण! मुझे कितना गुमान है<br>जिसे तुम मेरे व्यक्तित्व में<br>कि मैंने तुम्हें जो कुछ दिया हैविशेष रूप से प्यार करते हो!<br><br>वह सब अछूता था, ताजा था,सर्वप्रथम प्रस्फुटन था
आम का वह पहला बौर<br>तो क्या तुम्हारे पास की डार पर खिलीमौसम का पहला बौर था<br>तुम्हारे कन्धों पर झुकीअछूतावह आम की ताजी, ताजा सर्वप्रथम!<br>क्वाँरी, तुर्श मंजरी मैं ही थीमैंने कितनी बार और तुम में डूब-डूब कर कहा है<br>कि मेरे प्राणने मुझ से ही मारी माँग भरी थी! मुझे कितना गुमान है<br>कि मैंने तुम्हें जो कुछ दिया है<br>वह सब अछूता था, ताजा था,<br>सर्वप्रथम प्रस्फुटन था<br><br>
तो क्या तुम्हारे पास की डार पर खिली<br>तुम्हारे कन्धों पर झुकी<br>वह आम की ताजी, क्वाँरी, तुर्श मंजरी मैं ही थी<br>और तुम ने मुझ से ही मारी माँग भरी थी!<br><br>यह क्यों मेरे प्रिय!<br>क्या इसलिए कि तुमने बार-बार यह कहा है<br>कि तुम अपने लिए नहीं<br>मेरे लिए मुझे प्यार करते हो<br>और क्या तुम इसी का प्रमाण दे रहे थे<br>जब तुम मेरे ही निजत्व को, मेरे ही आन्तरिक अर्थ को<br>मेरी माँग में भर रहे थे<br><br>
और जब तुम ने कहा कि, “माथे पर पल्ला डाल लो!”<br>तो क्या तुम चिंता रहे थे<br>कि अपने इसी निजत्व को, अपने आन्तरिक अर्थ को<br>मैं सदा मर्यादित रक्खूँ, रसमय और<br>पवित्र रक्खूँ<br>नववधू की भाँति!<br><br>
हाय! मैं सच कहती हूँ<br>मैं इसे नहीं समझी; नहीं समझी; बिलकुल नहीं समझी!<br>यह सारे संसार से पृथक् पद्धति का<br>जो तुम्हारा प्यार है न<br>इस की भाषा समझ पाना क्या इतना सरल है<br>तिस पर मैं बावरी<br>जो तुम्हारे पीछे साधारण भाषा भी<br>इस हद तक भूल गई हूँ<br><br>
कि श्याम ले लो! श्याम ले लो!<br>पुकारती हुई हाट-बाट में<br>नगर-डगर में<br>अपनी हँसी कराती घूमती हूँ!<br><br>
फिर मैं उपनी माँग पर<br>आम के बौर की लिपि में लिखी भाषा<br>का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझ पायी<br>तो इसमें मेरा क्या दोष मेरे लीला-बन्धु!<br><br>
आज इस निभृत एकांत में<br>तुम से दूर पड़ी हूँ<br>और तुम क्या जानो कैसे मेरे सारे जिस्म में<br>आम के बौर टीस रहे हैं<br>और उन की अजीब-सी तुर्श महक<br>तुम्हारा अजीब सा प्यार है<br>जो सम्पूर्णत: बाँध कर भी<br>सम्पूर्णत: मुक्त छोड़ देता है!<br><br>
छोड़ क्यों देता ही प्रिय?<br>क्या हर बार इस दर्द के नये अर्थ<br>समझने के लिए!<br><br/poem>
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