"बाँच ली मैंने व्यथा / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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− | बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में ! | + | <poem> |
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− | मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी, | + | मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी, |
− | खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी, | + | खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी, |
− | आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है, | + | आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है, |
− | जल उठा वह कौन-सा दीपक बिना बाती नयन में ! | + | जल उठा वह कौन-सा दीपक बिना बाती नयन में ! |
− | कौन पन्थी खो गया अपनी स्वयं परछाइयों में, | + | कौन पन्थी खो गया अपनी स्वयं परछाइयों में, |
− | कौन डूबा है स्वयं कल्पित पराजय खाइयों में, | + | कौन डूबा है स्वयं कल्पित पराजय खाइयों में, |
− | लोक जय-रथ की इसे तुम हार जीवन की न मानो | + | लोक जय-रथ की इसे तुम हार जीवन की न मानो |
− | कौंध कर यह सुधि किसी की आज कह जाती नयन में। | + | कौंध कर यह सुधि किसी की आज कह जाती नयन में। |
− | सिन्धु जिस को माँगता है आज बड़वानल बनाने, | + | सिन्धु जिस को माँगता है आज बड़वानल बनाने, |
− | मेघ जिस को माँगता आलोक प्राणों में जलाने, | + | मेघ जिस को माँगता आलोक प्राणों में जलाने, |
− | यह तिमिर का ज्वार भी जिसको डुबा पाता नहीं है, | + | यह तिमिर का ज्वार भी जिसको डुबा पाता नहीं है, |
− | रख गया है कौन जल में ज्वाल की थाती नयन में ? | + | रख गया है कौन जल में ज्वाल की थाती नयन में ? |
− | अब नहीं दिन की प्रतीक्षा है, न माँगा है उजाला, | + | अब नहीं दिन की प्रतीक्षा है, न माँगा है उजाला, |
− | श्वास ही जब लिख रही चिनगारियों की वर्णमाला ! | + | श्वास ही जब लिख रही चिनगारियों की वर्णमाला ! |
− | अश्रु की लघु बूँद में अवतार शतशत सूर्य के हैं, | + | अश्रु की लघु बूँद में अवतार शतशत सूर्य के हैं, |
− | आ दबे पैरों उषाएँ लौट अब जातीं नयन में ! | + | आ दबे पैरों उषाएँ लौट अब जातीं नयन में ! |
आँच ली मैंने व्यथा की अनलिखी पाती नयन में ! | आँच ली मैंने व्यथा की अनलिखी पाती नयन में ! | ||
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18:19, 13 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में !
मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी,
खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी,
आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है,
जल उठा वह कौन-सा दीपक बिना बाती नयन में !
कौन पन्थी खो गया अपनी स्वयं परछाइयों में,
कौन डूबा है स्वयं कल्पित पराजय खाइयों में,
लोक जय-रथ की इसे तुम हार जीवन की न मानो
कौंध कर यह सुधि किसी की आज कह जाती नयन में।
सिन्धु जिस को माँगता है आज बड़वानल बनाने,
मेघ जिस को माँगता आलोक प्राणों में जलाने,
यह तिमिर का ज्वार भी जिसको डुबा पाता नहीं है,
रख गया है कौन जल में ज्वाल की थाती नयन में ?
अब नहीं दिन की प्रतीक्षा है, न माँगा है उजाला,
श्वास ही जब लिख रही चिनगारियों की वर्णमाला !
अश्रु की लघु बूँद में अवतार शतशत सूर्य के हैं,
आ दबे पैरों उषाएँ लौट अब जातीं नयन में !
आँच ली मैंने व्यथा की अनलिखी पाती नयन में !