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{{KKRachna
|रचनाकार=महादेवी वर्मा
|अनुवादक=
|संग्रह=दीपगीत / महादेवी वर्मा
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<poem>बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में !<br><br>
मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी,<br>खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी,<br>आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है,<br>जल उठा वह कौन-सा दीपक बिना बाती नयन में !<br><br>
कौन पन्थी खो गया अपनी स्वयं परछाइयों में,<br>कौन डूबा है स्वयं कल्पित पराजय खाइयों में,<br>लोक जय-रथ की इसे तुम हार जीवन की न मानो<br>कौंध कर यह सुधि किसी की आज कह जाती नयन में।<br><br>
सिन्धु जिस को माँगता है आज बड़वानल बनाने,<br>मेघ जिस को माँगता आलोक प्राणों में जलाने,<br>यह तिमिर का ज्वार भी जिसको डुबा पाता नहीं है,<br>रख गया है कौन जल में ज्वाल की थाती नयन में ?<br><br>
अब नहीं दिन की प्रतीक्षा है, न माँगा है उजाला,<br>श्वास ही जब लिख रही चिनगारियों की वर्णमाला !<br>अश्रु की लघु बूँद में अवतार शतशत सूर्य के हैं,<br>आ दबे पैरों उषाएँ लौट अब जातीं नयन में !<br>
आँच ली मैंने व्यथा की अनलिखी पाती नयन में !
</poem>
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