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-डॉ० जगदीश व्योम
 
-डॉ० जगदीश व्योम
 
सो गई है मनुजता की संवेदना
 
 
सो गई है मनुजता की संवेदना
 
गीत के रूप में भैरवी गाइए
 
गा न पाओ अगर जागरण के लिए
 
कारवां छोड़कर अपने घर जाइए
 
 
झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी
 
आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी
 
सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा
 
कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी
 
सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन
 
उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।
 
 
काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
 
ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण
 
चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी
 
और नीलाम होते रहे आचरण
 
लेखनी छुप के आंसू बहाती रही
 
उनको रखने को गंगाजली चाहिए।
 
 
राजमहलों के कालीन की कोख में
 
कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन
 
देह की हाट में भूख की त्रासदी
 
और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
 
इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
 
अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।
 
 
भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे
 
है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे
 
कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे
 
और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
 
ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से
 
खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।
 
 
कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
 
है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
 
कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
 
कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
 
सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
 
इनमें ढल जाइए या चले आइए।
 
 
-डॉ॰ जगदीश व्योम
 

12:27, 5 अगस्त 2006 का अवतरण

माँ

माँ कबीर की साखी जैसी

तुलसी की चौपाई-सी माँ मीरा की पदावली-सी माँ है ललित स्र्बाई-सी।

माँ वेदों की मूल चेतना माँ गीता की वाणी-सी माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी लोकोक्तर कल्याणी-सी।

माँ द्वारे की तुलसी जैसी माँ बरगद की छाया-सी माँ कविता की सहज वेदना महाकाव्य की काया-सी। माँ अषाढ़ की पहली वर्षा सावन की पुरवाई-सी माँ बसन्त की सुरभि सरीखी बगिया की अमराई-सी।

माँ यमुना की स्याम लहर-सी रेवा की गहराई-सी माँ गंगा की निर्मल धारा गोमुख की ऊँचाई-सी।

माँ ममता का मानसरोवर हिमगिरि सा विश्वास है माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी कावा है कैलाश है।

माँ धरती की हरी दूब-सी माँ केशर की क्यारी है पूरी सृष्टि निछावर जिस पर माँ की छवि ही न्यारी है।

माँ धरती के धैर्य सरीखी माँ ममता की खान है माँ की उपमा केवल है माँ सचमुच भगवान है।

-डॉ० जगदीश व्योम