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कुंजी / रामधारी सिंह "दिनकर"

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|रचनाकार=रामधारी सिंह '"दिनकर'"|अनुवादक=
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<poem>
घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन,
जब मैं बालक अबोध अनजान था।
घेरे था मुझे यह पवन तुम्हारी साँसों साँस का पवन,<br>जब सौरभ लाता था।उसके कंधों पर चढ़ामैं बालक अबोध अनजान जाने कहाँ-कहाँआकाश में घूम आता था।<br><br>
यह पवन तुम्हारी साँस का<br>सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।सौरभ लाता था।<br>उसके कंधों पर चढ़ा<br>मगर कोई परी मेरे साथ में थी;मैं जाने कहाँ-कहाँ<br>मुझे मालूम तो न था,आकाश मगर ताले की कूंजी मेरे हाथ में घूम आता था।<br><br>थी।
सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।<br>मगर कोई परी मेरे साथ में थी;<br>मुझे मालूम तो जवान हो कर मैं आदमी थारहा,<br>मगर ताले खेत की कूंजी मेरे हाथ में थी।<br><br>घास हो गया।
जवान हो कर मैं आदमी न रहा,<br>तुम्हारा पवन आज भी आता हैखेत की और घास हो गया।<br><br>के साथ अठखेलियाँ करता है,उसके कानों में चुपके चुपकेकोई संदेश भरता है।
तुम्हारा पवन आज भी आता घास उड़ना चाहती है<br>और घास के साथ अठखेलियाँ करता अकुलाती है,<br>उसके कानों मगर उसकी जड़ें धरती में चुपके चुपके<br>कोई संदेश भरता बेतरह गड़ी हुईं हैं।इसलिए हवा के साथवह उड़ नहीं पाती है।<br><br>
घास उड़ना चाहती है<br>और अकुलाती है,<br>मगर उसकी जड़ें धरती में<br>बेतरह गड़ी हुईं हैं।<br>इसलिए हवा के साथ<br>वह उड़ नहीं पाती है।<br><br> शक्ति जो चेतन थी,<br>अब जड़ हो गयी है।<br>बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,<br>उम्र बढ़ते बढ़ते<br>वह कहीं खो गयी है।<br><br/poem>
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