भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मैं ख़ुदा बनके / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली | |संग्रह=खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
− | < | + | <poem> |
मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में | मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में | ||
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग. | मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग. | ||
पंक्ति 30: | पंक्ति 30: | ||
१. बिना रौशनी | १. बिना रौशनी | ||
+ | </poem> |
18:52, 11 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण
मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग.
रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ.
खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में
मैं ही मज़दूर के पसीने में...!
मैं ही बरसात के महीने में.
मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू.
मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं,जब लोग.
मैं जमीनों को बेजिया१ करके
आसमानों में लौट जाता हूँ
मैं ख़ुदा बनके कहर ढाता हूँ.
१. बिना रौशनी