"विदेश में कमरे / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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12:56, 24 जून 2021 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
वहाँ विदेशों में
कई बार कई कमरे मैं ने छोड़े हैं
जिस में छोड़ते समय
लौट कर देखा है
कि सब कुछ
ज्यों-का-त्यों है न!-यानी
कि कहीं कोई छाप
बची तो नहीं रह गयी है
जो मेरी है
जिसे कि अगला कमरेदार
ग़ैर समझे!
किसी कमरे में
मैं ने अपना कुछ नहीं छोड़ा
सिवा कभी, कहीं, कुछ कूड़ा
जिसे मेरे हटते ही साफ कर दिया जाएगा
क्यों कि कमरे में फिर दूसरा
कमरेदार भर दिया जाएगा।
सभ्यता : गति है
कि हटते जाओ अपने-आप
और छोड़ो नहीं
ऐसी कोई छाप
कि दूसरों को अस्वस्तिकर हो;
थोड़ा कूड़ा-अधिक नहीं, इतना कि हटाने वाला
(और क्रमेण फिर हटने वाला) मान ले
कि सभ्यता नवीकरण है, प्रगति है।
और यहाँ, देस में मैं
रेल की पटरी के किनारे बैठा हूँ
और यहाँ लौट-लौट कर देखता हूँ
कि सब कुछ
ज्यों-का त्यों है न!
यानी कि हर चीज़ पर मेरी छाप बनी तो है न
जिस से कि मैं उसे अपना पहचानूँ!
यह मेरी बक्स है, यह मेरी बिस्तर,
यह मेरा झोला, मेरा हजामत का सामान,
मेरा सुई-धागा, मेरी कमीज़ से टूटा हआ बटन
यह मेरी कापी, जिस में यह मेरी लिखावट
और यह यह मेरा अपना नाम।
तो मैं हूँ, न!
यहाँ, देश में, मैं हूँ न!
नवम्बर, 1970