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सूरज / अनिल जनविजय

No change in size, 20:27, 2 नवम्बर 2008
क़िताब पढ़ रहा है
एक लम्बा भूमिगत इतिहास
यातना के भयानक सन सब क्षणॊं को
मन ही मन फिर गढ़ रहा है
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