भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ग़ज़ल 13-15 / विज्ञान व्रत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विज्ञान व्रत |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <Poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
<Poem>
 
<Poem>
 +
'''13'''
 +
ऐशपरस्ती      के      सामान
 +
लेकिन    पूरा    घर    वीरान
 +
 +
मुझमें  वो  बरसों    से    है
 +
फिर  भी  मुझसे  है  अंजान
 +
 +
आज    क़यामत    आएगी
 +
वो  खोलेगा  आज  ज़बान
 +
 +
ख़ुद  से  ही  नावाक़िफ़  था
 +
मुझसे  क्या  करता  पहचान
 +
 +
मैं  अब  ख़ुद  से  ग़ायब  हूँ
 +
मुझमें  रहता    है    सामान
 +
'''14'''
 +
आप  कब  किसके  नहीं  हैं
 +
हम  पता  रखते  नहीं  हैं
 +
 +
जो  पता  तुम  जानते  हो
 +
हम  वहाँ    रहते    नहीं  हैं
 +
 +
जानते    हैं  आपको    हम
 +
हाँ  मगर  कहते    नहीं  हैं
 +
 +
जो    तसव्वुर    था    हमारा
 +
आप  तो    वैसे    नहीं    हैं
 +
 +
बात    करते    हैं      हमारी
 +
जो  हमें    समझे    नहीं  हैं
 +
'''15'''
 +
मैं  जब  ख़ुद  को  समझा  और
 +
मुझमें    कोई    निकला    और
 +
 +
यानी    एक    तजुरबा    और
 +
फिर  खाया  इक  धोखा  और
 +
 +
होती    मेरी      दुनिया    और
 +
तू  जो  मुझको  मिलता  और
 +
 +
मुझको  कुछ  कहना  था  और
 +
तू    जो  कहता  अच्छा  और
 +
 +
मेरे    अर्थ    कई    थे  काश
 +
तू  जो  मुझको  पढ़ता  और
  
 
</poem>
 
</poem>

10:04, 31 मई 2022 के समय का अवतरण

13
ऐशपरस्ती के सामान
लेकिन पूरा घर वीरान

मुझमें वो बरसों से है
फिर भी मुझसे है अंजान

आज क़यामत आएगी
वो खोलेगा आज ज़बान

ख़ुद से ही नावाक़िफ़ था
मुझसे क्या करता पहचान

मैं अब ख़ुद से ग़ायब हूँ
मुझमें रहता है सामान
14
आप कब किसके नहीं हैं
हम पता रखते नहीं हैं

जो पता तुम जानते हो
हम वहाँ रहते नहीं हैं

जानते हैं आपको हम
हाँ मगर कहते नहीं हैं

जो तसव्वुर था हमारा
आप तो वैसे नहीं हैं

बात करते हैं हमारी
जो हमें समझे नहीं हैं
15
मैं जब ख़ुद को समझा और
मुझमें कोई निकला और

यानी एक तजुरबा और
फिर खाया इक धोखा और

होती मेरी दुनिया और
तू जो मुझको मिलता और

मुझको कुछ कहना था और
तू जो कहता अच्छा और

मेरे अर्थ कई थे काश
तू जो मुझको पढ़ता और