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लेखपाल / मानबहादुर सिंह

90 bytes added, 20:38, 26 जुलाई 2022
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शक्ति की कुल्हाड़ी से—ख़ुराफ़ातों से — ख़ुराफ़ातों की कँटबाँसी काट
साफ़ कर दो सारी ज़मीन...
तलवार को कुल्हाड़ी बनाने की कोशिश
आँख है जो ज़िंदगी ज़िन्दगी को राह देती है। सिर्फ़ ‘लुहा’ ‘लुहा’ से भव बाधा नहीं भगेगी , भाई!
तुम्हारे ही पड़ोस में रात भर
बिलखती सुमिरन की पतोहू कितना झख मारती रही
सुबह तक—लेकिन तक — लेकिन पेड़ से गिरे उसके आदमी की टीस जो उस बेचारी के अँधेरे अन्धेरे में
पीली आँखें जैसी कौंध रही थीं
तुम्हारे भीतर इतनी भी रोशनी न जगा सकी
उसे उठा अस्पताल पहुँचा देते
अपनी सरकार के पास—जिसके पास — जिसके अहलकार तुम हो। हो ।
दो घड़ी दिन चढ़ते-लाख देवी देवता की
मनौती के बावजूद
कुंदा कुन्दा जैसी देह अररा के जीवन से टूट जल के जलके राख हो गई। गई । उसी राख से तुमने अपने हरे दिन उगाए—लेखपाल उगाए — लेखपाल !
नहीं, समझी थी सीधी-सी बात
‘हूँह’ कहके टाल दिया था मुझे उस दिन
कोर्ट-कचहरी थाना-पुलिस तक रपटे जाते
स्याह हुए पागल कुत्ते जैसा
झाग उगल रहे हैं। हैं । क़लम की बंदूक़ बन्दूक़ से रुपए का शिकार करते हुए
जिनका कलेजा चलनी कर दिया है
झर गए उनके सुकून के क्षण
वहाँ कोई किसी के ख़िलाफ़ मुख़बिर है या गवाह
आदमी-आदमी से जोड़े कैसा रिश्ता
जब संबंधों सम्बन्धों के बीच फेंके तुम्हारे काँपे में
उलझा अपने को छुड़ाने में ही तबाह है।
आमने-सामने खड़े हो जब बात करने को
सोचते हैं वे झाँकने लगता है ज़मीन का कोई टुकड़ा
जिसमें उनकी आत्मीयता गाड़ दी है तुमने!
तुमने ही लोगों की छाती से
चुराई है उनकी मुहब्बत— मुहब्बत —
“देश का आदमी देश चुराए
घी अड़ाये अड़ाए पहिती में जाए”
हँसते हुए कहते हो...
अपने घर की कुंडी कुण्डी भीतर से खोल
ख़ुद ही चोर घुसाए
हाईस्कूल क़लम नक़ब लगाए
एम०ए० घुस सारा धन विलायत-पलट को दे आए
बड़ा अनुशासित सिलसिला है , जनाब!
सावधान की मुद्रा में राष्ट्रगान गाता मुल्क
पागल कुत्तों जैसा झोझिया रहा है!
आख़िर किसी भी लड़ाई को लुहकारता
रसोई का वह छूँछा कनस्तर नहीं है क्या
जिसका एक चुटकी आटा बना
एक चुटकी अदालत
कुछ पंडित पण्डित के अँगोछे में
राजा रानी बने नौटंकियों के
बाक़ी काले चेहरे सफ़ेद करने में चुक गया। गया ।
सुमिरन की पतोहू तुमसे कहे थी न— न — “पिछवाड़े की कोठ मेरे नाम कर दी दो, लेखपाल बाबू !
आदमी तो लकड़ी काटते मर गया
मेरी उमर कटने में उसके हाथ रोपी यह कोठ
शायद अंधे अन्धे की लाठी बने आगे सब अन्हियार ही अन्हियार तो है!”
पर तुमने सौ रुपए ले जिस दिन
भरोसे यादव के नाम लिख दिया था उसे
सारा दिन , सारी रात आँचर में सुनक-सुनक
अपना अन्हियार रोती रही थी वह
लेकिन अपनी क़लम की तलवार भाँजते हुए
इतना भी नहीं देखा— देखा — कि किसी का सिर उतर रहा या बढ़ा हुआ बाल?
सैंतालिस की लगन में उसकी शादी हुई थी
और टैगौर उसके पहले ही
यह सोच कि क़लम लाठी है
और अब आज़ाद है वह लेखपाल के हाथ में
चाहे जिसका सिर फोड़े!
पर मैं तो सोचता हूँ
इस क़लम के चालाक पैंतरे में लिखने की कोई भी अदा
नहीं काट पाएगी क़लम लगाई
कँटबाँसी की झाल। झाल ।
बहुत कुछ कर रही है क़लम
चाहे भजन लिखे या ख़सरा-खतौनी
सारे गाँव की नींद में
झाँखर की तरह रक्खा
सपनों के पाँवों को लहूलुहान करता रहा— रहा — कैलेंडर कैलेण्डर में देवी-देवता की मूरतें
दीवारों पर हिलती रही
नीचे चाँदनी चान्दनी ज़र्दे का इश्तहार
पूँछ ऐंठे एक आदमी करता रहा
पेड़ से गिरने वाला वह
पान में कभी खाया है उसे?
तुम तो बाबा छाप ज़ाफ़रानी
कलकत्ता से मँगा खाते हो— हो —
तुम तो बहुत लिखते हो मगर राष्ट्रगान की
चंद पंक्तियाँ चन्द पँक्तियाँ तहसील पहुँच एकदम भूल जाते हो। हो ।
तुम राष्ट्रीय सरकार के पहले अधिकारी हो
कैसी थी तुम्हारी क़लम की कुल्हाड़ी
कि भरोसे यादव सुमिरन की पतोहू के
मरे आदमी की बाँहें काट ले गया?
राष्ट्रगान के कवि की क़लम
क्या तुम्हारी क़लम को नहीं जानती?
राष्ट्रगान को भजन बना
वह नहीं बचा पाएगी लोगों में
राष्ट्र का जीवन
क्योंकि लोगों की ज़िंदगी ज़िन्दगीनहीं बाँधी जा सकती उजले शब्दों के क़फ़न में!
तुम्हारे बस्ते की क़ब्र से
निकल आएगी एक न एक दिन
आदमी की ज़मीन
आकाश-सा अपना नया जन्म लेकर। लेकर ।
भजन गा भवबाधा पार जाने की भक्ति
कनफुँकवा शक्ति जीते देश का
सुमिरन की पतोहू से नाजायज़ वास्ता है। है ।
अब तो हर भजन
कक्षा में विद्यार्थियों के आगे जैसी
व्याख्या माँगती है
नहीं तो , किसी भी जनगण का अधिनायक
लेखपालों के जाल में
खींच ले जाएगा आदमी का हाथ
और उसमें उसी की उगाई लाठियाँ थमा
फुड़ा देगा उसी का सिर!
लेखपाल भाई !
जिस मुक़ाम पर छटपटा रहे हमारे पाँव
देख नहीं पा रहे
एक दूसरे को भरी आँख भर आँख। आँख ।
उस दिन मैंने कहा था भरोसे यादव से— से — “भैया, आदमी हो—आदमी हो — आदमी के ख़िलाफ़
ठीक नहीं ऐसी बात
वही लेखपाल किसी दिन तुम्हारा हक़
लिख आएगा उसे जो देगा एक हज़ार
ईमान से बड़ा जब कर दोगे रुपया
किसकी लगाओगे गुहार?”
आदमियों के चौतरफ़ा स्वर्ण-रेखाओं का लेखपाल
ज़मीन के ऊपर बाँट दिया आदमी को
चमार और यादव में। में ।
तुमने भले न गाया हो राष्ट्रगान
पर ज़रूर सुना होगा सुमिरन की पतोहू का विलाप
जो बन बैठी हैं सवेरा लाने वाली सरकार
लेखपाल की क़लम की स्याही पीये
आन्हर हो गई है। है ।
जो बाँस काट लकड़ी तोड़ने की लग्गी बनाया
उसे उस आदमी ने लगाया था
जो लकड़ी काटने चढ़ा
पेड़ से गिर प्राण गँवाया था। था । एक बात और जानो— जानो —
हमारे घर में घुसा हाईस्कूल पास
विलायत वालों के लिए कुंडी कुण्डी खोल रहा है
उसे युद्ध खेलने के लिए गोली-गोला चाहिए
शान-शौकत के लिए विदेशी शृंगार
और फिर तुम्हारा धन ही नहीं
तुमसे तुम्हारा साथी भी हटका रहा है , यार!”
“दो टके के लालच में लाख टके की समझ
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