{{KKCatKavita}}
<poem>
यूँ ही तुम लिपटी रहो सुगंध की तरहतरह।
हर साँस में घुलते रहें ज्वालामुखीमधु डाल -सी देह प्राणों पर झुकीनवनीत कंधों पर नज़र हो जब टिकी,बाहुपाश में बंद बँध जाओ छन्द की तरह।
चूमते हैं पीठ को रेशमी कुंतलज्यों नहाती चाँदनी में लहर श्यामलफिसल रहा है बार- बार तृषित आँचल,दृष्टि से बाँधे रहो अनुबंध की तरह।
लिखते रहें कथाएँ , किसलय- से अधरबिछाती रहें मदहोशियाँ नित सेज परमौन वाणी, रोम- रोम हो उठें मुखरमन अछूता बाँध लो भुजबन्द भुजबन्ध की तरह ।'''-0-(28-3-86, रसमुग्धा अक्तु-दिस-86)'''
</poem>