"चरवाहा / अनीता सैनी" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनीता सैनी }} {{KKCatKavita}} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | वहाँ! | ||
+ | उस छोर से फिसला था मैं, | ||
+ | पेड़ के पीछे की | ||
+ | पहाड़ी की ओर इशारा किया उसने | ||
+ | और एक-टक घूरता रहा | ||
+ | पेड़ या पहाड़ी ? | ||
+ | असमंजस में था मैं! | ||
+ | हाथ नहीं छोड़ा किसी ने | ||
+ | न मैंने छुड़ाया | ||
+ | बस, मैं फिसल गया! | ||
+ | पकड़ कमज़ोर जो थी रिश्तों की | ||
+ | तुम्हारी या उनकी? | ||
+ | सतही तौर पर हँसता रहा वह | ||
+ | बाबूजी! | ||
+ | इलाज चल रहा है | ||
+ | कोई गंभीर चोट नहीं आई | ||
+ | बस, रह-रहकर दिल दुखता है | ||
+ | हर एक तड़प पर आह निकलती है। | ||
+ | वह हँसता रहा स्वयं पर | ||
+ | एक व्यंग्यात्मक हँसी | ||
+ | कहता है बाबूजी! | ||
+ | सौभाग्यशाली होते हैं वे इंसान | ||
+ | जिन्हें अपनों के द्वारा ठुकरा दिया जाता है | ||
+ | या जो स्वयं समाज को ठुकरा देते हैं | ||
+ | इस दुनिया के नहीं होते | ||
+ | ठुकराए हुए लोग | ||
+ | वे अलहदा दुनिया के बासिन्दे होते हैं, | ||
+ | एकदम अलग दुनिया के। | ||
+ | ठहराव होता है उनमें | ||
+ | वे चरवाहे नहीं होते | ||
+ | दौड़ नहीं पाते वे | ||
+ | बाक़ी इंसानों की तरह, | ||
+ | क्योंकि उनमें | ||
+ | दौड़ने का दुनियावी हुनर नहीं होता | ||
+ | वे दर्शक होते हैं | ||
+ | पेड़ नहीं होते | ||
+ | और न ही पंछी होते हैं | ||
+ | न ही काया का रूपान्तर करते हैं | ||
+ | हवा, पानी और रेत जैसे होते हैं वे! | ||
+ | यह दुनिया | ||
+ | फ़िल्म-भर होती है मानो उनके लिए | ||
+ | नायक होते हैं | ||
+ | नायिकाएँ होती हैं | ||
+ | और वे बहिष्कृत | ||
+ | तिरस्कृत किरदार निभा रहे होते हैं, | ||
+ | किसने किसका तिरस्कार किया | ||
+ | यह भी वे नहीं जान पाते | ||
+ | वे मूक-बधिर... | ||
+ | उन्हें प्रेम होता है शून्य से | ||
+ | इसी की ध्वनि और नाद | ||
+ | आड़ोलित करती है उन्हें | ||
+ | उन्हें सुनाई देती है | ||
+ | सिर्फ़ इसी की पुकार | ||
+ | रह-रहकर | ||
+ | इस दुनिया से | ||
+ | उस दुनिया में | ||
+ | पैर रखने के लिए रिक्त होना होता है | ||
+ | सर्वथा रिक्त। | ||
+ | रिक्तता की अनुभूति | ||
+ | पँख प्रदान करती है उस दुनिया में जाने के लिए | ||
+ | जैसे प्रस्थान-बिंदु हो | ||
+ | कहते हुए- | ||
+ | वह फिर हँसता है स्वयं पर | ||
+ | एक व्यंग्यात्मक हँसी। | ||
</poem> | </poem> |
00:17, 7 जुलाई 2023 के समय का अवतरण
वहाँ!
उस छोर से फिसला था मैं,
पेड़ के पीछे की
पहाड़ी की ओर इशारा किया उसने
और एक-टक घूरता रहा
पेड़ या पहाड़ी ?
असमंजस में था मैं!
हाथ नहीं छोड़ा किसी ने
न मैंने छुड़ाया
बस, मैं फिसल गया!
पकड़ कमज़ोर जो थी रिश्तों की
तुम्हारी या उनकी?
सतही तौर पर हँसता रहा वह
बाबूजी!
इलाज चल रहा है
कोई गंभीर चोट नहीं आई
बस, रह-रहकर दिल दुखता है
हर एक तड़प पर आह निकलती है।
वह हँसता रहा स्वयं पर
एक व्यंग्यात्मक हँसी
कहता है बाबूजी!
सौभाग्यशाली होते हैं वे इंसान
जिन्हें अपनों के द्वारा ठुकरा दिया जाता है
या जो स्वयं समाज को ठुकरा देते हैं
इस दुनिया के नहीं होते
ठुकराए हुए लोग
वे अलहदा दुनिया के बासिन्दे होते हैं,
एकदम अलग दुनिया के।
ठहराव होता है उनमें
वे चरवाहे नहीं होते
दौड़ नहीं पाते वे
बाक़ी इंसानों की तरह,
क्योंकि उनमें
दौड़ने का दुनियावी हुनर नहीं होता
वे दर्शक होते हैं
पेड़ नहीं होते
और न ही पंछी होते हैं
न ही काया का रूपान्तर करते हैं
हवा, पानी और रेत जैसे होते हैं वे!
यह दुनिया
फ़िल्म-भर होती है मानो उनके लिए
नायक होते हैं
नायिकाएँ होती हैं
और वे बहिष्कृत
तिरस्कृत किरदार निभा रहे होते हैं,
किसने किसका तिरस्कार किया
यह भी वे नहीं जान पाते
वे मूक-बधिर...
उन्हें प्रेम होता है शून्य से
इसी की ध्वनि और नाद
आड़ोलित करती है उन्हें
उन्हें सुनाई देती है
सिर्फ़ इसी की पुकार
रह-रहकर
इस दुनिया से
उस दुनिया में
पैर रखने के लिए रिक्त होना होता है
सर्वथा रिक्त।
रिक्तता की अनुभूति
पँख प्रदान करती है उस दुनिया में जाने के लिए
जैसे प्रस्थान-बिंदु हो
कहते हुए-
वह फिर हँसता है स्वयं पर
एक व्यंग्यात्मक हँसी।