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"दीवारों से ऊंची ये खामोशियाँ / शिव रावल" के अवतरणों में अंतर

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ये भीड़ जो अजनबी-सी टहलती रहती है महफिलों में
 
ये भीड़ जो अजनबी-सी टहलती रहती है महफिलों में
 
ज़रा पूछे परवाने से के राख हुई शम्मा भला कैसे पिघल रही है
 
ज़रा पूछे परवाने से के राख हुई शम्मा भला कैसे पिघल रही है
 
  
 
किनारे की दूरी को तरसता रहता है मांझी अक्सर  
 
किनारे की दूरी को तरसता रहता है मांझी अक्सर  

01:32, 30 सितम्बर 2023 के समय का अवतरण

बुलंदियों की हसरतों में जमीनें फ़िसल रहीं हैं
होंसलों की उड़ानों को वक़्त की दरारें निगल रही हैं
लोग कहते हैं कि खामखां बरपा है हंगामा
हालातों की नेज़ुओं पर हसरतें लटक रही हैं
ये भीड़ जो अजनबी-सी टहलती रहती है महफिलों में
ज़रा पूछे परवाने से के राख हुई शम्मा भला कैसे पिघल रही है

किनारे की दूरी को तरसता रहता है मांझी अक्सर
के कश्तियाँ आजकल यहाँ मझधारों को मसल रही हैं
दीवारों से ऊंची ये खामोशियाँ 'शिव'
न जाने क्यों उस जुबां को मचल रही हैं