"पटकथा / पृष्ठ 3 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
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किसी झनझनाते चाकू की तरह | किसी झनझनाते चाकू की तरह | ||
खुलकर,कड़ा हो गया… | खुलकर,कड़ा हो गया… | ||
− | अचानक अपने-आपमें | + | अचानक अपने-आपमें ज़िन्दा होने की |
यह घटना | यह घटना | ||
इस देश की परम्परा की - | इस देश की परम्परा की - | ||
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दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई | दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई | ||
गाय की घृणा थी | गाय की घृणा थी | ||
− | ( | + | (ज़िन्दा रहने की पुर ज़ोर कोशिश) |
जो उस आदमखोर की हवस से | जो उस आदमखोर की हवस से | ||
बड़ी थी। | बड़ी थी। | ||
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भूखों मर रहे थे | भूखों मर रहे थे | ||
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के | मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के | ||
− | एक शर्मनाक दौर से | + | एक शर्मनाक दौर से गुज़र रहा हूँ |
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई | अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई | ||
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है | किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है | ||
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देखता है, न थरथराती हुई टाँगें | देखता है, न थरथराती हुई टाँगें | ||
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है | और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है | ||
− | हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है | + | हर आदमी, सिर्फ, अपना धन्धा देखता है |
सबने भाईचारा भुला दिया है | सबने भाईचारा भुला दिया है | ||
आत्मा की सरलता को भुलाकर | आत्मा की सरलता को भुलाकर | ||
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उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है | उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है | ||
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से | ठीक उस मोची की तरह जो चौक से | ||
− | + | गुज़रते हुये देहाती को | |
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर | प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर | ||
रबर के तल्ले में | रबर के तल्ले में | ||
पंक्ति 101: | पंक्ति 101: | ||
वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर | वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर | ||
नागरिकता की गोधूलि में | नागरिकता की गोधूलि में | ||
− | घर लौटते | + | घर लौटते मुसाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं। |
− | उन्होंने किसी | + | उन्होंने किसी चीज़ को |
सही जगह नहीं रहने दिया | सही जगह नहीं रहने दिया | ||
न संज्ञा | न संज्ञा | ||
पंक्ति 113: | पंक्ति 113: | ||
शिराओं में छिपे हुये कारकों का | शिराओं में छिपे हुये कारकों का | ||
हत्यारा है | हत्यारा है | ||
− | उनकी | + | उनकी सख़्त पकड़ के नीचे |
भूख से मरा हुआ आदमी | भूख से मरा हुआ आदमी | ||
इस मौसम का | इस मौसम का |
11:52, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण
मैं सोचता रहा
और घूमता रहा-
टूटे हुये पुलों के नीचे
वीरान सड़कों पर आँखों के
अंधे रेगिस्तानों में
फटे हुये पालों की
अधूरी जल-यात्राओं में
टूटी हुई चीज़ों के ढेर में
मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ
ढूँढता रहा।
अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के
बिस्तरों में/ नुमाइशों में
बाज़ारों में /गाँवों में
जंगलों में /पहाडों पर
देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को
बार-बार टेरता रहा
जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शान्ति दे और
मेरे भीतर-बाहर का ज़हर
खुद पी सके।
–और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त
…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…
मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया
जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
कन्धों पर लुढ़क रहा था,
किसी झनझनाते चाकू की तरह
खुलकर,कड़ा हो गया…
अचानक अपने-आपमें ज़िन्दा होने की
यह घटना
इस देश की परम्परा की -
एक बेमिशाल कड़ी थी
लेकिन इसे साहस मत कहो
दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
गाय की घृणा थी
(ज़िन्दा रहने की पुर ज़ोर कोशिश)
जो उस आदमखोर की हवस से
बड़ी थी।
मगर उसके तुरन्त बाद
मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी
अपने इतिहास की
जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने
विस्मय से देखा कि ताशकन्द में
समझौते की सफेद चादर के नीचे
एक शान्तियात्री की लाश थी
और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पडो़सी ने
मात खायी थी।
मगर मैं फिर वहीं चला गया
अपने जुनून के अँधेरे में
फूहड़ इरादों के हाथों
छला गया।
वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग
भूखों मर रहे थे
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
एक शर्मनाक दौर से गुज़र रहा हूँ
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
अब न तो कोई किसी का खाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है
हर आदमी, सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सरलता को भुलाकर
मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल में)
सुला दिया है।
सहानुभूति और प्यार
अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये
एक आदमी दूसरे को,अकेले –
अँधेरे में ले जाता है और
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
गुज़रते हुये देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद
डपटकर पैसा वसूलता है
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।
उन्होंने किसी चीज़ को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
‘बि ख र’ गया है
उनका व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुये कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख़्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों में भूख और शहरों में
अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं