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"पटकथा / पृष्ठ 6 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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डूबी हुई पृथ्वी
 
डूबी हुई पृथ्वी
 
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
 
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है
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इस भीषण सड़ाँध को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
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मगर आपस में नफरत करते हुए वे लोग
 
इस बात पर सहमत हैं कि
 
इस बात पर सहमत हैं कि
 
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
 
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
 
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
 
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये
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किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुए
 
न उन्हें मलाल है, न भय है
 
न उन्हें मलाल है, न भय है
 
न लाज है
 
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दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
 
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और इसी बहाने
 
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वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं
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वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं
 
मैंने देखा कि हर तरफ
 
मैंने देखा कि हर तरफ
 
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
 
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
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चलो।  
 
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इससे पहले कि वे
 
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गलत हाथों के हथियार हों
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ग़लत हाथों के हथियार हों
 
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
 
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
 
काले बाज़ार हों
 
काले बाज़ार हों
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अन्धा शिकार है।
 
अन्धा शिकार है।
 
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
 
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
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मैं हर वक़्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
 
जहाँ वर्तमान
 
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अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
 
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
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शायद अपने-आपको
 
शायद अपने-आपको
 
शायद उस हमशक्ल को  
 
शायद उस हमशक्ल को  
(जिसने खुद को हिन्दुस्तान कहा था)  
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(जिसने ख़ुद को हिन्दुस्तान कहा था)  
 
शायद उस दलाल को
 
शायद उस दलाल को
 
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है
 
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है
 
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12:10, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँध को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुए वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुए
न उन्हें मलाल है, न भय है
न लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…
मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
यह क्या कर रहे हो? ’मैं चिल्लाया।
और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित- सा
पड़ा था-
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था
खून और आँसू से तर चेहरा
मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
उसकी आवाज में उतर आया था-
‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्हें उजाले से जोड़ा है
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
इसी तरह तोड़ा है
मगर समय गवाह है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’
मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
जैसे किसी जले हुये जंगल में
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी-भरी
ऐसी आवाज़ है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं…
अपने हैं…
अपने हैं…
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ
मुझे किसी का भय नहीं है।
‘तुम मेरी चिंता न करो।
उनके साथ
चलो।
इससे पहले कि वे
ग़लत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
काले बाज़ार हों
उनसे मिलो।
उन्हें बदलो।
नहीं-भीड़ के ख़िलाफ़ रुकना
एक खूनी विचार है
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है।
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक़्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जहाँ वर्तमान
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
वह टुकड़ा हूँ
जो आदमी की शिराओं में
बहते हुये खू़न को
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
इसलिये मैं कहता हूँ, जाओ,और
देखो कि लोग…
मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
मुझे दूर फेंक दिया।
इससे पहले कि मैं गिरता
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
मेरी देह में समा गया।
दूसरा मेरे हाथों में
एक पर्ची थमा गया।
तीसरे ने एक मुहर देकर
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
काटते हुये मैं चीख पड़ा-
‘हत्यारा! हत्यारा!! हत्यारा!!!’
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।
मैंने यह
किसको कहा था।
शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को
(जिसने ख़ुद को हिन्दुस्तान कहा था)
शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है