"हिंसक परम्पराएँ / नेहा नरुका" के अवतरणों में अंतर
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दादी : “मोड़ों छाती से चिपकाय के रखी जातीं है ?” | दादी : “मोड़ों छाती से चिपकाय के रखी जातीं है ?” | ||
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इत्यादि हिंसक वाक्य जब मुँह से निकलकर हवा में घुलते होंगे | इत्यादि हिंसक वाक्य जब मुँह से निकलकर हवा में घुलते होंगे |
04:41, 14 मार्च 2025 के समय का अवतरण
मेरे ऊपर पहली हिंसा कब और किसके द्वारा हुई
कुछ याद नहीं आ रहा…
हो सकता है तब हुई हो जब मेरी उम्र रही हो
कोई एक-आध साल
मेरे रोने की ध्वनि और दादी के चीख़ने की ध्वनि,
जब गड्डमड्ड होकर माँ के कानों से टकराई होगी
तब माँ ने मुझे झूले में पटककर तड़ाक की आवाज़ के साथ
पहला थप्पड़ रसीद किया होगा —
माँ : “रोटी के लिए अबेर करवा दी जा मोड़ी ने !”
दादी : “मोड़ों छाती से चिपकाय के रखी जातीं है ?”
बुआ : “गोदी में लिवाय-लिवाय कें डुलनी बनाय दई है मोड़ी।”
इत्यादि हिंसक वाक्य जब मुँह से निकलकर हवा में घुलते होंगे
तो गुलाबी गाल से पहले लाल फिर नीला रंग झड़ता होगा
माँ घर में सबसे कमज़ोर थी
माँ से कमज़ोर थी मैं
तन, मन, धन तीनों से बेहद कमज़ोर
और इनसान अपने से कमज़ोर इनसान पर ही अपनी कुण्ठाएँ
आरोपित करता आया है
मैंने कोई हिसाब-किताब दर्ज नहीं किया हिंसा का
सम्भव भी नहीं था यह करना
गणित मेरे लिए बेस्वाद विषय रहा हमेशा
माँ ने इसलिए मारा क्योंकि मैं उनकी दुर्गति में सहायक थी,
मैंने उनके दूध से रोते स्तन ज़ख़्मी किए थे
पिता ने इसलिए कि मैं जवान होकर भी उद्दण्ड थी,
मैंने उन्हें झुककर कभी प्रणाम नहीं किया था
पति ने इसलिए कि मैं बेशर्म थी,
मैं उसके दोस्तों के सामने हँस देती थी
और अकारण ही नाचने लगती थी
नाचने से मेरे भाई को भी सख़्त चिढ़ थी,
इसलिए कभी-कभार वह भी प्यार से मार देता था मुझे
चिढ़ तो मेरे प्रेमी को भी मेरे हर शब्द से थी,
इसलिए वह अक्सर शब्दों के थप्पड़ मारता था मेरे गालों पर,
उन्हीं गालों पर जिन्हें वह कई बार पागलों की तरह चूमकर
फूल जैसा होने का खिताब दे चुका था ।
मैंने मारा अपने बच्चों को
क्योंकि वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे
वे तो सार्वजनिक आलोचना भी नहीं कर सकते थे मेरी
अगर करते भी, तो कौन करता उन पर विश्वास ?
आखिर मैं माँ थी !
और माँ होती है ममता-त्याग-महानता की मूर्ति
हिंसा हर परिस्थिति में हिंसा नहीं कही जाती
हम इसे पवित्र परम्परा के नाम से जानते हैं
हिंसक परम्पराओं के पालन में हम सभी मनुष्य माहिर हैं
हमें अपराधबोध भी नहीं सताता
हम इसे प्रेम कह-कहकर व्याख्यायित करते हैं ।
मृत्यु के बाद भी आत्मा पर पड़े हिंसक-चिह्न
जीवाश्म बन जाने के लिए अभिशप्त हैं
इसलिए हम सब उन हाथों को विराम देने के बारे में
विचार कर सकते हैं
जो ‘निर्माण’ की जगह ‘हिंसा’ के लिए उठे ।